हास्य व्यंग्य

पति परमेश्वर

“अभिनव जरा इधर सुनना एक मिनट किचन में आना। मुझे एक मदद चाहिए, ऊपर डब्बे में बिस्किट रखे है। जरा निकाल देना बिस्किट का डब्बा, मेरे हाथ में आटा लगा हुआ है। मैं आटा गूंथ रही हूं। स्वीटी को बिस्किट चाहिए, बिस्किट के लिए रो रही है।”… मंजु ने अभिनव को आवाज दी।
“हां… आ रहा हूं मंजु! स्वीटी बेटा मत रो, अभी पापा आ कर आपको बिस्किट निकाल कर दे रहे हैं।”… अभिनव ने कहा।

“हाय.. राम.. का कह रही हो बिटिया। पति का नाम लेकर उसको पुकार रही हो। हे.. भगवान का जमाना आई गवा। तौबा.. तौबा.. पति का नाम लेना तो पाप होथै। कौनो पत्नी अपने पति का नाम लेत है का? पति तो परमेश्वर समान होथै। और अभी बिटवा तुम भी अपनी पत्नी का नाम ले रहो, उसे बुलावे खातिर?… अभिनव के पड़ोस की मौसी, रमाबाई ने कहा, जो मंजू से मिलने उसके घर आई थी।

“पति तो परमेश्वर के समान है मौसी! परमेश्वर का नाम नहीं लेते हैं, आप कह रही हैं! तो.. क्या हम भगवान का नाम नहीं लेते हैं ? हे श्री कृष्ण, हे शिव जी! हे राम! कहते नहीं है क्या? उनको तो नाम लेकर ही पुकारते हैं सारे भक्त। जब भगवान का नाम लेकर भक्त उनको पुकार सकते हैं,तो हम भी तो अपने पति की भक्तिनी है। अपने ‘पति परमेश्वर’ का नाम क्यों नहीं ले सकते?”… मंजु ने हंसकर जवाब दिया।
“हमका नाहीं पता, तुम लोगन का, का जमाना है? हम अपने जमाने में ऐसा नाहीं बोलथै। तुम्हारे मौसा को बुलावे के वास्ते तो हम कह रहे,राजा के बापू सुनो और तुम्हारे मौसा हम को बुलावे के वास्ते कहते, अरे.. भागवान! सुनती हो। हमको तुम्हारे मॉर्डन जमाने का कुछ भी समझ नहीं आता।”… रमाबाई ने थोड़ा सा चिढ़ते हुए कहा।
“हमारे जमाने में और शहर में मौसी ऐसी ही चलन है आजकल। पति, पत्नी एक दूसरे का नाम लेकर ही पुकारते हैं। हम पति को अपने परमेश्वर से ज्यादा दोस्त समझते हैं। समय बदल गया है मौसी!”… मंजू ने मंद मंद मुस्कुराते हुए कहा।
“तुमका पता नाहीं बहू! एक बार का हुआ हम गए थे हॉस्पिटल डॉक्टर बाबू के पास। वो हमसे पूछन रहे कि..” तुम्हारा पति का नाम का है?”.. हमको इतना सरम आई रही कि कैसे बोले अपने पति का नाम।”… रमाबाई ने शरमाते हुए कहा।
आगे क्या हुआ जानने की उत्सुकता बढ़ गई मंजू को। उसने पूछा..” आगे क्या हुआ फिर मौसी?”
“का बताऊं.. हम एक छोरी को लेकर गए थे साथ मा। उसी से कहीन रही, री.. चंपा बता ना रे! अपने काका का नाम का है, डॉक्टर साहब को!”.…रमाबाई ने आगे की बात बताई।
“फिर चंपा ने मौसाजी का नाम बता दिया था मौसी?”… सुनीता को जानने की उत्सुकता हो रही थी।
“फिर का.. चंपा बोली, चाची, हमको चाचा जी का नाम नहीं पता है। हम कैसे बोले?..” डॉक्टर साहब फिर से तुमरे मौसाजी का नाम पूछा!”… रमाबाई बड़ी मासूमियत से कहानी बता रही थी।
“फिर आपने क्या कहा मौसी! कैसे बताया मौसाजी का नाम?… मंजू की दिलचस्पी बढ़ गई थी।
“हम नाही ना बोलेब पति का नाम। हमरी ऊपर पाप ना लगीब।ऊ चंपा से बोली, तोका नहीं मालूम…हमरे गांव मा एक ‘नरेश’ है ना… उस नाम का नाम है तोरे चाचा का। बता दियो डॉक्टर साहब को।”… मंजू अपनी हंसी नहीं रोक पा रही थी😅😅😅। मौसी की मासूमियत पर दया आ रही थी ।और उसे तो पुराने अंधविश्वासों के बारे में सोच कर मन ही मन क्रोध भी आ रहा था।

पूर्णतः मौलिक-ज्योत्स्ना पाॅल।

*ज्योत्स्ना पाॅल

भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त , बचपन से बंगला व हिन्दी साहित्य को पढ़ने में रूचि थी । शरत चन्द्र , बंकिमचंद्र, रविन्द्र नाथ टैगोर, विमल मित्र एवं कई अन्य साहित्यकारों को पढ़ते हुए बड़ी हुई । बाद में हिन्दी के प्रति रुचि जागृत हुई तो हिंदी साहित्य में शिक्षा पूरी की । सुभद्रा कुमारी चौहान, महादेवी वर्मा, रामधारी सिंह दिनकर एवं मैथिली शरण गुप्त , मुंशी प्रेमचन्द मेरे प्रिय साहित्यकार हैं । हरिशंकर परसाई, शरत जोशी मेरे प्रिय व्यंग्यकार हैं । मैं मूलतः बंगाली हूं पर वर्तमान में भोपाल मध्यप्रदेश निवासी हूं । हृदय से हिन्दुस्तानी कहलाना पसंद है । ईमेल- paul.jyotsna@gmail.com