लघुकथा

खुशी की बरसात

दादा जी की उंगली थामे मोनू घिसटता हुआ बेमन से सैर पर चला जा रहा था. दादा जी ने उसे चुस्ती से चलने को कहा, तो मोनू का गुस्सा फूट पड़ा-

”दादू, यह भी कोई जिंदगी है! दादू की उंगली थामे स्कूल जाओ, घर आओ, ट्यूशन पर जाओ या सैर पर जाओ. आप मुझे कभी अपनी मर्जी से क्यों नहीं चलने देते?”

”बेटा, अभी आप छोटे हो.”

”ऐसे तो मैं कभी भी बड़ा होने से रहा!” शायद मोनू सचमुच बड़ा हो गया था. तभी हिंदी में गीत गाते, खेलते-शोर मचाते बच्चों की खिलखिल आवाजें सुनकर मोनू दादू का हाथ छुड़ा उत्सुकता से लकड़ी की खप्पचियों से उस पार झांकने लगा. दादू से भी नहीं रहा गया. ऑस्ट्रेलिया में हिंदी का यह खेल! शायद कोई भारतीय परिवार यहां रहता होगा. बहुत देर तक वे देखते रहे. खिलखिलाते बच्चों को देखकर भला किसे अच्छा नहीं लगता!

मोनू का मन कर रहा था, वह भी इनमें शामिल होकर खेल सके. तभी बाहर से आती हुई एक महिला ने उनको देखा, तो ”अंकल जी, नमस्ते” कहकर उनका अभिवादन किया और मोनू को भी प्यार कर उसका नाम पूछा.

”आंटी जी, नमस्ते. मेरा नाम मोनू है.”

”आप खेलोगे इनके साथ?” मोनू को और क्या चाहिए था. दादू के डर से हां कैसे कहता! उनकी तरफ देखने लगा. तभी महिला ने कहा- ”अंकल जी, इसे थोड़ी देर बच्चों के साथ खेलने दीजिए न! इसका मन भी बहल जाएगा, हमारे बच्चों को भी कंपनी मिल जाएगी. आइए, तब तक हम चाय पीते हैं.”

दादू ना कैसे कह पाते! विदेश में देश का प्यार पाकर सम्मोहित-से साथ चल पड़े. दादू को ड्राइंग रूम में बिठाकर आंटी मोनू को बच्चों के पास ले गई. ”बच्चों, यह मोनू है. इसको भी अपने साथ खिलाओ, दोस्ती बढ़ाओ, मैं थोड़ी देर में आती हूं.”

मोनू को तो सोनल-मीनल-देवल के साथ ”हरा समंदर, गोपी चंदर, बोल मेरी मछली कितना पानी!” खेलकर बहुत मजा आ रहा था. उसे घर में भले ही हिंदी बोलने की अनुमति नहीं थी, पर वह समझता सब था. मछली के नाम से उसे समझ आ गया था, कि वह पानी में रहती है. उसने खुश होकर कहा- ”मछली का खेल स्विमिंग पूल में खेलें तो कैसा रहेगा!”

”पर हमें तो स्विमिंग आती नहीं, अभी हम ऑस्ट्रेलिया में नए-नए आए हैं. 1 अक्तूबर से दो सप्ताह की छुट्टियों में हम सीख लेंगे.”

”कोई बात नहीं, आप लोग पानी में पैर डालकर किनारे पर बैठ जाओ, मैं अंदर जाता हूं, आप मेरे से पूछना बोल मेरी मछली कितना पानी!” बच्चों ने ऐसा ही किया. उधर आंटी जी चाय बनाते-बनाते यह तमाशा देख रही थीं, सो उन्होंने झट से वीडियो भी बना लिया था.

चाय के साथ स्नैक्स का आनंद लेते हुए दादू ने वीडियो का भी आनंद लिया. घर जाकर उन्होंने बहू से कहा- ”अब मोनू बड़ा हो गया है, अब मैं उसकी उंगली थामकर चलूंगा. मैं तो सिर्फ़ कविता लिखता हूं-
”खुशी को खुशी ही रहने दो”
आज मोनू ने सचमुच खुशी की बरसात कर दी”

*लीला तिवानी

लेखक/रचनाकार: लीला तिवानी। शिक्षा हिंदी में एम.ए., एम.एड.। कई वर्षों से हिंदी अध्यापन के पश्चात रिटायर्ड। दिल्ली राज्य स्तर पर तथा राष्ट्रीय स्तर पर दो शोधपत्र पुरस्कृत। हिंदी-सिंधी भाषा में पुस्तकें प्रकाशित। अनेक पत्र-पत्रिकाओं में नियमित रूप से रचनाएं प्रकाशित होती रहती हैं। लीला तिवानी 57, बैंक अपार्टमेंट्स, प्लॉट नं. 22, सैक्टर- 4 द्वारका, नई दिल्ली पिन कोड- 110078 मोबाइल- +91 98681 25244

One thought on “खुशी की बरसात

  • लीला तिवानी

    हम बच्चों को बड़ा होने की इजाजत दें-न-दें, प्रतिभावान बच्चे अपने आप अपना रस्ता खोज लेते हैं. कभी बड़े होकर भी वे बड़े और आत्मनिर्भर नहीं हो पाते और कभी मोनू की तरह बचपन में ही वे बड़े होकर हमें बहुत कुछ सिखा देते हैं.

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