लघुकथा

आज का हामिद

तब हामिद क्या करता, कल्पना करना मुश्किल लगा तो सोच रही हूँ…  

गाँधीमैदान में ट्रेड फेयर लगा था। स्कूल के कुछ मित्रों ने वहाँ चलने की योजना बनायी। सभी बच्चे बड़े घरानों से थे लेकिन कौशल एक मजदूर का बेटा था। वो उनके साथ नहीं जाना चाहता था मगर मित्रों के भावनात्मक दबाव में आकर उनके साथ चल पड़ा।
गाँधीमैदान पहुँचकर सभी मित्र मेला घूमने लगे। एक जगह सभी चाट खाने रुके मगर गौरव ने बहाना बनाया,”यार! मेरे पेट में कुछ गड़बड़ है.. तुमलोग खा लो..।” गौरव मित्रों के साथ मेला घूमता रहा। उसके मित्र कुछ-कुछ खरीदते जा रहे थे किन्तु गौरव कई चीजें खरीदना चाहकर भी जेब में पड़े सौ रुपये के कारण मन मसोस कर रह जाता। वह सोचता क्या खरीदूँ? उसे अपने कोर्स में पढ़ी प्रेमचंद की कहानी ‘ईदगाह’ याद हो आयी। उसे लगा वह गौरव नहीं हमीद है। गौरव अपनी दादी के लिए चिमटा नहीं चश्मा खरीदना चाहता था ताकि दादी अपने कार्य ठीक से कर सकें। कम दिखने की वजह से कभी रोटी जल जाती तो कभी सब्जी में नमक कम या ज्यादा हो जाता। उसके मित्र एक बड़े दूकान में कुछ ख़रीदने के लिए रुके तो वह सामने चश्मे की दूकान पर रुका,”भैया! मेरी दादी को ठीक दिखलाई नहीं देता है उनके लिए एक चश्मा चाहिए।”
“अरे! उसके लिए तो अपनी दादी को किसी डॉक्टर के पास लेकर जाओ.. डॉक्टर चेककर नम्बर लिख देगा। उस पुर्जी को लेकर नाला रोड में किसी चश्मे की दूकान से खरीदना होगा। यहाँ तो गोगल यानी धूप से बचने के चश्मे मिलते हैं।”
“नजर वाला चश्मा कितना में मिलेगा?”
“पाँच छ: सौ तो लग ही जायेगा।”
“ओह्ह! पर मैं तो बहुत ही गरीब…,”
“तुम अपनी दादी की आँखें पी.एम.सी.एच. में दिखला लो, सबसे अच्छा होगा… कुछ स्वेच्छित संस्थाएं उसमें गरीबों हेतु कैम्प लगाती हैं। आजकल राणा प्रताप भवन में कैम्प लगा हुआ है.. वहाँ अपनी दादी को ले जाओ, मुफ्त में चश्मा मिल जाएगा।” गौरव बहुत खुश हुआ।
“चलो मैं भी एक आइसक्रीम खा ही लेता हूँ…।” बीस रुपया आइसक्रीम वाले को देकर अस्सी रुपये बचाकर घर लौट आया।
“दादी!कल हमलोग राणा प्रताप भवन चलेंगे।”
“क्यों?’
“तुम्हारी आँखें दिखलाकर चश्मा लाने…।”
“अरे बेटूवा! काम तो चल ही रहा है…।”
“नहीं दादी! हमेशा अंधेरे में रहना ठीक नहीं है.. जीवन का सही आनन्द उजाले में ही है…।”

*विभा रानी श्रीवास्तव

"शिव का शिवत्व विष को धारण करने में है" शिव हूँ या नहीं हूँ लेकिन माँ हूँ