लघुकथा

उलझन में लिपटा जीवन

.अनेकानेक दलों के मैनिफेस्टो को वह अबतक आकंलन-निरीक्षण-परीक्षण करता रहा था… आजतक कोई सरकार उसे ऐसी नहीं दिखी जो जारी किए अपने मैनिफेस्टो को पूरा लागू करने में सक्षम रही हो।
फिर चुनावी मौसम गरमाया हुआ था.. उसके गाँव की याद सभी दलों को बारी-बारी से आना स्वाभविक ही था…
सबसे उलझता रहता, “तुम्हारे दल के मैनिफेस्टो में बेरोजगारी हटाना था, बेरोजगार को आलसी बनाया जा रहा है, राम मंदिर बनाना , धारा 370 हटाना था..!”
“तुम्हारे दल ने जनसंख्या नहीं रोकी, गरीबी पर चुनाव लड़ती रही गरीबी खत्म नहीं की.. किसान खत्म होने के कगार पर हैं…।”
“तुम्हारी पार्टी समाजवाद नहीं ला सकी..।
“तुम्हारे लोग बहुजन के मुद्दे को हल नहीं कर पाए। राज्यो में समानता और सबको रोजगार नहीं दे पाए..।”
“किसी भी कंपनी के प्रोडक्ट अपने मानदण्ड पर खरे न उतरे तो कंपनी का लाइसेंस रद्द हो जाना चाहिए जब ऐसा हो सकता है… तो कोई पार्टी चुनावी मेनिफेस्टो पर खरी न उतरे उसकी मान्यता रद्द हो जानी चाहिए.. ऐसी पार्टी के लिए तो ताली बजनी ही नहीं चाहिए जहाँ से गाली की धारा बहती हो… ये क्या चमड़े की जुबान फिसलती ही रहती ।” 80-85 साल का समाज सेवक सत्तू पिसान की गठरी बाँधें.. गाँव वालों को जगाने के लिए पहरु बना हुआ है

*विभा रानी श्रीवास्तव

"शिव का शिवत्व विष को धारण करने में है" शिव हूँ या नहीं हूँ लेकिन माँ हूँ