लघुकथा

लघुकथा- मैं डॉक्टर बनूंगी

आज एक समाचार पढ़ा-
रायगढ़ः 14 किमी रोज घने जंगल से होकर, जान जोखिम में डाल स्कूल पहुंचती है यह छात्रा
मन में उत्सुकता हुई उस छात्रा से मिलने की, सो माइक-शाइक लेकर हम पहुंच गए महाराष्ट्र के रायगढ़ जिले में.
”आपका नाम क्या है?” हमारा पहला सवाल था.
”निकिता कृष्णा.” उसने कहा.
”सुना है आपको स्कूल जाने के लिए रोज 14 किमी चलना पड़ता है?”
”जी, आपने ठीक सुना है. मुझे रोज 14 किमी चलना पड़ता है, वह भी घने जंगल से होकर.”
”घने जंगल से होकर! फिर तो बहुत डर भी लगता होगा?”
”बहुत डर लगना चाहिए, पर मैं घबराती नहीं, मुझे डॉक्टर जो बनना है. बस डॉक्टर बनने का सपना सजाते-सजाते मैं स्कूल पहुंच जाती हूं.”
”फिर भी, थोड़ा-बहुत डर तो लगता ही होगा?” हमारी हैरानी बढ़ती जा रही थी.
”मैंने अक्सर जंगली सुअरों और सांपों का सामना किया है. एक हफ्ते पहले मुझे स्कूल जाते समय जंगल में एक तेंदुआ भी मिला. मैं पहले डर गई लेकिन फिर सुरक्षित अपने घर पहुंच गई.”
”यानी ये भी आपके साथी बन गए हैं? आपको स्कूल पहुंचने में कितना समय लगता है?”
”मेरा स्कूल गांव से सात किलोमीटर की दूरी पर है. रोज स्कूल आने-जाने के दौरान मुझे चौदह किलोमीटर पैदल चलना पड़ता है. एक तरफ से यात्रा में मुझे दो घंटे लगते हैं.”
”फिर तो थकान भी हो जाती होगी!”
”हौसले वालों को थकान नहीं होती. सुबह मेरा स्कूल 10 बजकर 45 मिनट पर शुरू होता है. मैं अपने घर से सुबह 8 बजकर 45 मिनट पर निकलती हूं. इतना ही नहीं शनिवार को मेरा स्कूल सुबह आठ बजे का होता है, इसलिए इस दिन मुझे सुबह छह बजे घर छोड़ देना पड़ता है.”
”मौसम साथ देता है?”
”मौसम मुझे क्या साथ देगा! मैं मौसम के अनुसार ढल जाती हूं. मेरे इलाके में अक्सर भारी बारिश होती है, ऐसे में मेरा स्कूल जाना बहुत कठिन हो जाता है. बारिश होने पर रास्ते में कमर तक पानी भर जाता है.” थोड़ा रुककर वह कहती है-
”शाम को साढ़े चार बजे स्कूल छूटता है. छुट्टी होते ही मैं अपने घर की तरफ लंबे-लंबे कदम बढ़ा देती हूं. बारिश के मौसम और सर्दियों में जंगल के अंदर जल्दी अंधेरा होने लगता है, इसलिए जंगल में प्रवेश करते ही मैं दौड़ लगाना शुरू करती हूं, ताकि जल्दी घर पहुंच सकूं. जंगली जानवरों को देखकर मेरा ठिठक जाना स्वाभाविक है.”
”दौड़ लगाते-लगाते आप अच्छी ऐथलीट भी बन गई होंगी?”
”जी, मैं साइंस और गणित में अपनी क्लास के हर छात्र से सबसे ज्यादा नंबर लाती हूं और मेरी रोज की मेहनत ने मुझे एक अच्छी ऐथलीट भी बना दिया है. मैं तहसील में होने वाली ऐथलीट प्रतियोगिता में दो साल से प्रथम आई हूं.”
”आप डॉक्टर क्यों बनना चाहती हैं?”
”मैं बड़ी होकर डॉक्टर इसलिए बनना चाहती हूं, ताकि मेरे गांव के उन लोगों को इलाज जल्दी मिल सके, जिन्हें इलाज कराने के लिए गांव से कई किलोमीटर दूर जाना पड़ता है, इस दौरान कई की मौत भी हो जाती है.”
”बस एक आखिरी सवाल, आपके माता-पिता क्या करते हैं?”
”जी, वे धान लगाने का काम करते हैं.”
”निकिता जी आपसे मिलकर हमें बहुत खुशी हुई. हमारी शुभकामनाएं आपके साथ हैं.”
भावी डॉक्टर निकिता ने मेरा मन मोह लिया था.

*लीला तिवानी

लेखक/रचनाकार: लीला तिवानी। शिक्षा हिंदी में एम.ए., एम.एड.। कई वर्षों से हिंदी अध्यापन के पश्चात रिटायर्ड। दिल्ली राज्य स्तर पर तथा राष्ट्रीय स्तर पर दो शोधपत्र पुरस्कृत। हिंदी-सिंधी भाषा में पुस्तकें प्रकाशित। अनेक पत्र-पत्रिकाओं में नियमित रूप से रचनाएं प्रकाशित होती रहती हैं। लीला तिवानी 57, बैंक अपार्टमेंट्स, प्लॉट नं. 22, सैक्टर- 4 द्वारका, नई दिल्ली पिन कोड- 110078 मोबाइल- +91 98681 25244

One thought on “लघुकथा- मैं डॉक्टर बनूंगी

  • लीला तिवानी

    सचमुच हौसले ही तो हमें आगे बढ़ने की राह दिखाते हैं. निकिता को भी हौसलों ने ही राह दिखाई थी.

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