कविता

स्वार्थ

आगे बढ़ने की होड़ में
बेकाबू हो गए हैं हम

दब गई कहीं मानवता
स्वार्थ की बढ़ी कतार

एकदूसरे के प्रति ईष्याभाव ने
बढाया है अपना तेज कदम

लाँघकर आदर, सम्मान का दायरा
कटु स्वर से सबको घायल करते हम

लुप्त हो रही कहीं दिल से सभी के
अपनेपन का प्रेमभाव

स्थिति बिगड़ी है ऐसी आज
छोटी-छोटी बात पर करते वाद-विवाद

लोभ-मोह की नीयत से रिश्तों में पड़ी दरार
अपने ही अपनों को करते गैरों के आगे शर्मसार

खोटा सिक्का बन गया है
मानव का स्वभाव
हर पल अपने हित में करते दूसरों पर वार।

*बबली सिन्हा

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