कहानी

आत्म संतुष्टि

आज मासूम निधि की धन की बेदी पर बलि चढ़ाई जाएगी। वह अब बड़ी हो चुकी है। इस बालिका अनाथ आश्रम की कलुषित परंपरा को समझने लगी है। जैसे ही उसके कानों में यह बात पड़ी कि आज उसे किसी सेठ के पास भेजा जाएगा, उसकी क्रंदन ध्वनि हवाओं में गूंज कर दीवारों से टकराकर प्रतिध्वनि करती सुनाई दी “नहीं.. नहीं.. मुझे मत भेजो! मैं नहीं जाऊंगी! मुझ पर कृपा करो।”

जब मनुष्य शैतान बन जाता है और उसकी जीह्वा पर लोभ का आवरण चढ़ जाता है तो उसे फिर कुछ नहीं सूझता। जैसे किसी सिंह को मनुष्य के रक्त का स्वाद मिल जाता है तो वह केवल और केवल मनुष्य के रक्त का प्यासा हो जाता है।

विनय कुमार और दीपाली को भी धन कमाने का चस्का लग चुका है। वह धन चाहे किसी भी मार्ग से गुजर कर मिल जाए। न्याय, अन्याय और व्यभिचार जैसे शब्द तो उनके शब्दकोश में है ही नहीं। वे तो केवल जानते हैं “ना बाप बड़ा ना भैया, सबसे बड़ा रुपैया” यह जुमला तो उनके लिए वेद मंत्र बन गया है।
एक अनाथ बालिका आश्रम के सर्वे सर्वा, भगवान स्वरूप थे वे दोनों। ऊपर से देखने पर ऐसा लगता जैसे इतनी पुण्यात्मा तो इस विश्व में कोई है ही नहीं। बातों से तो इतनी मिठास टपकती जैसे मधुमक्खियों को शहद इकट्ठा करने लिए अब पुष्प वन भटकने की आवश्यकता ही नहीं है।

ऐसे कई निधियों की रुपयों की वेदी पर बलि चढ़ाई गई है। शहर के बड़े बड़े जाने-माने हस्तियों, चाहे वे नेता को या कोई व्यवसायिक सबसे अच्छी जान पहचान बना कर रखी है विनय कुमार और दीपाली ने।
एक का नाम विनय कुमार, पर.. ह्रदय में क्रूरता भरी हुई है। दूसरे का नाम दीपाली परंतु दीपों से उजाला फैलाने के बदले अंधेरा फैला रखा है अनाथ बालिका आश्रम में। कहते हैं ना कि जैसे ‘दिए तले अंधेरा’ ठीक वैसी ही बात है।

दोनों ने निधि को डराके, धमकाके, मारपीट करके, निधि कमाने के लिए सेठ सुनील अरोड़ा के पास भेज दिया। बेचारी निधि रोती बिलखती रह गई। उसकी क्रंदन ध्वनि हवाओं से टकराकर वापस उस अनाथ बालिका आश्रम में लौट कर आ गई, जहां पर उसको सुनने वाला कोई नहीं है।

डरी हुई सहमी हुई निधि को होटल में सेठ के कमरे में धक्का देकर प्रवेश कराकर दरवाजा बंद कर दिया गया। सेठ नशे में धुत, उसे निधि का चेहरा स्पष्ट दिखाई भी नहीं दे रहा था। उसे लगा सामने चंचल खड़ी है। जैसे चंचल अपने पापा को देख कर एक मीठी मुस्कान बिखेर देती थी वैसे ही मुस्कान बिखेर कर कह रही है “पापा मैं आ गई आप से मिलने। आप अच्छी तरह से देखो मेरी ओर मैं आपकी चंचल ही हूं। माँ कैसी है? माँ नहीं दिखाई दे रही है? क्या मैं इतनी बुरी हूं जो आप लोग मुझसे मिलते भी नहीं हो और बातें भी नहीं करते! मैं तो आप लोगों को बहुत याद करती हूं और आप लोगों के बिना मुझे कुछ भी अच्छा नहीं लगता। कितने दिन हो गए माँ के हाथ के बना खाना नहीं खाया। बड़ा मन करता है उनके हाथ से बने आलू के पराठे खाने का। आप मुझे माँ के पास ले चलोगे ना? मुझे उनसे मिलकर ढेर सारी बातें करनी है।” सेठ को निधि के जगह पर अपनी बेटी चंचल का चेहरा दिखाई दे रहा था। आंखों को बंद कर के फिर खोलता, फिर चंचल का चेहरा दिखाई देता। दोबारा आंखें बंद करके फिर खोलता, फिर वही चंचल का चेहरा दिखाई देता। वह परेशान होकर जोर से चिल्लाया “कोई है यहां पर इस लड़की को ले जाओ यहां से।”

नौकर दौड़कर आया और दरवाजे पर दस्तक दिया तो निधि ने तुरंत दरवाजा खोला और दौड़ कर बाहर ऐसे निकल गई, जैसे पिंजरे का द्वार खोल देने से कोई पंछी दूर गगन में उड़ जाता है और अपनी आजादी का जश्न मनाता है। आज निधि भी जैसे उस पंछी की भांति आजाद हो गई है। इस आजादी का स्वाद तो केवल वही चख सकता है जो वर्षों से पिंजरे में कैद हो और आजाद होने के लिए छटपटा रहा हो।

दो साल पहले की बात है सेठ सुनील अरोरा की चौदह वर्षीय बेटी चंचल ट्यूशन पढ़कर घर लौट रही थी। थोड़ी रात हो गई थी, करीब 8:30 बज रहे थे। वह सड़क के किनारे फुटपाथ पर चल रही थी क्योंकि उसका घर अधिक दूरी पर नहीं था। दिल्ली का चांदनी चौक का इलाका। अचानक एक कार आकर बिल्कुल निधि के पास रूकी और कार का दरवाजा खुला तो किसी ने चंचल का हाथ पकड़कर कार के अंदर खींच लिया।

रात को जब चंचल घर नहीं पहुंची तो सेठ की पत्नी ने ट्यूशन टीचर के यहां फोन किया तो पता चला चंचल वहां से निकल गई है। तब उसने घबरा कर अपने पति को फोन किया कि चंचल अभी तक घर नहीं आई है। सेठ बिना विलंब किए पुलिस स्टेशन गया और रिपोर्ट दर्ज करा दी कि मेरी बेटी अभी तक घर नहीं पहुंची है। रोज ट्यूशन के लिए जाती है और 8:30 तक घर आ जाती है।

सुबह पुलिस स्टेशन से सेठ सुनील अरोड़ा के पास फोन आया कि दूर हाईवे के पास एक खेत में एक चौदह,पन्द्रह साल की लड़की की क्षत-विक्षत लाश मिली है। आप लोग आ जाए थाने और शिनाख्त कर ले कि कहीं आपकी बेटी तो नहीं है।

सेठ और उसकी पत्नी दोनों विलंब किए बिना ही थाने पहुंचे। जब लाश पर से कपड़ा हटाया गया तो सेठ की पत्नी जोर से चीख पड़ी “नहीं.. यह नहीं हो सकता, मेरी चंचल के साथ ऐसा किसने किया!” और वह बेहोश हो गई।
अपराधियों को पुलिस ने पकड़ ली और उनको फांसी की सजा दी गई।

इतनी बड़ी घटना हो जाने के पश्चात भी सेठ के चरित्र में कोई बदलाव नहीं आया। शायद इंसान जब ऊंचे ऊंचे महलों में रहने लगते हैं तो इंसान का चरित्र नीचे गिर जाता है। इसका जीता जागता सबूत सेठ सुनील अरोरा है। न जाने ऐसे कितने सफेदपोश भेड़िए हैं जो हिरणों का शिकार करते रहते हैं और समाज को नोच नोच कर अंदर से खोखला किए दे रहे हैं। जाने कब आजादी मिलेगी इन भेड़ियों से हिरणों को। हम 70 साल पहले आजाद तो हो गए परंतु क्या अभी भी हमारी माता और बहनें संपूर्ण रूप से आजाद हो पाईं हैं? क्या वह अपने देश में आजादी से विचरण कर सकती हैं? क्या बालिकाएँ हमारे देश में सुरक्षित है? जब दीपाली जैसी स्त्री हमारे देश में मौजूद है तो कैसे कोई बालिका, बालिका आश्रम में सुरक्षित रह सकती है? धन के लोभ में एक नारी ही एक नारी की अस्मिता से खेल रही है तो पुरुषों की क्या बात करें? सवाल कई है परंतु जवाब एक भी नहीं।

सेठ सुनील अरोरा का नशा जब सुबह उतरा तो वह अपराध बोध से ग्रस्त था। उसे रात वाली घटना बार-बार याद आ रही है और अपनी बेटी चंचल का चेहरा बार बार सामने आ रहा है और वह कह रही है “पापा मेरे साथ दरिंदों ने बहुत जुल्म किया। मुझे बहुत तकलीफ दी और अंत में मुझे मार डाला। मैं मरना नहीं चाहती थी। मैंने उन दरिंदों से अपने जीवन की भीक्षा मांगी पर उन लोगों ने मुझ पर रहम नहीं किया। दोबारा किसी ऐसी मासूम लड़की के साथ ऐसी घटना हो तो उन दरिंदों को आप माफ मत करना। आप मेरे जैसी लड़कियों को बचाना और उनको अच्छी जिंदगी देना।”
सेठ सुनील अरोरा ने मन ही मन न जाने क्या सोचा और सीधा थाने की ओर चल पड़ा।

विनय कुमार और दीपाली को पुलिस ने पकड़ कर जेल में बंद कर दी। जब उन पर केस चला तो सुनील अरोरा सरकारी गवाह बन गया। जीवन भर किए हुए पाप का शायद वह प्रायश्चित करना चाहता है।

अनाथ बालिका आश्रम की पूरी जिम्मेदारी सुनील अरोड़ा ने अपने ऊपर ले ली। बालिकाओं को शिक्षा देने एवं शिक्षा के पश्चात उनको रोजगार देने का प्रण किया। उनको एक बेहतर एवं आजाद जिंदगी मुहैया करने का बीड़ा उठाया। जो लड़कियां आर्थिक रूप से स्वावलंबी हो जाती है, उनको कोई अच्छा लड़का देखकर शादी करा दी जाती है। जो लड़कियां और आगे बढ़ना चाहती है उनको और आगे बढ़ने का अवसर दिया जाता है। लड़कियां शिक्षित एवं आर्थिक रूप से सावलंबी होकर गर्वित महसूस कर रही हैं।

आज जब वह छोटी छोटी लड़कियों को हंसते बोलते, खिल खिलाते देखता है तो उसे उन लोगों में अपनी चंचल की छवि दिखाई देती है। उसके मन में खुशी किरणें फैल कर मन को आलोकित कर जाती है। उसकी आंखों में नमी तैरने लगती है, परंतु उसका का मन आत्म संतुष्टि से भर उठता है।

पूर्णतः मौलिक-ज्योत्स्ना पाॅल।

*ज्योत्स्ना पाॅल

भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त , बचपन से बंगला व हिन्दी साहित्य को पढ़ने में रूचि थी । शरत चन्द्र , बंकिमचंद्र, रविन्द्र नाथ टैगोर, विमल मित्र एवं कई अन्य साहित्यकारों को पढ़ते हुए बड़ी हुई । बाद में हिन्दी के प्रति रुचि जागृत हुई तो हिंदी साहित्य में शिक्षा पूरी की । सुभद्रा कुमारी चौहान, महादेवी वर्मा, रामधारी सिंह दिनकर एवं मैथिली शरण गुप्त , मुंशी प्रेमचन्द मेरे प्रिय साहित्यकार हैं । हरिशंकर परसाई, शरत जोशी मेरे प्रिय व्यंग्यकार हैं । मैं मूलतः बंगाली हूं पर वर्तमान में भोपाल मध्यप्रदेश निवासी हूं । हृदय से हिन्दुस्तानी कहलाना पसंद है । ईमेल- paul.jyotsna@gmail.com