कविता

मुखोटा

मुझे मुखोटा ओढ़ जीना आ गया
बिन हँसी के हँसना आ गया
ये लो दोस्तों मुझे भी – इंसान बनना आ गया !
आँखे भरी है बहती नहीं ,
दर्द है चीख आती नहीं ,
हँसी है , पर होंठो पर आती नहीं
मेरी ख़ामोशी मेरा रूप बन गया …
मुझे भी इस गुमनाम से जहाँ में जीना आ गया !
जिन्दो का काफिला है ,
मुर्दों सी सोच का ,
मुझे मुरदों के लिये नहीं ,
जिन्दो के लिये आँसू बहाना आ गया ,
नफरतो के इस बाजार में ,
मुझे खुद को बचाना आ गया ,
ये लो
मुझे भी इंसान बनना आ गया !!

डॉली अग्रवाल

पता - गुड़गांव ईमेल - dollyaggarwal76@gmail. com