लघुकथा

छीजन

”प्रकृति तुम क्यों छीजती जा रही हो?” प्रकृति के उदास-से चेहरे को देखते हुए मनुष्य ने पूछा था.
”तुम पूछ रहे हो? क्या यह बात तुमसे छिपी हुई है, कि मनुष्य की उदासीनता का मकड़जाल ही मेरी उदासी का कारण है!” प्रकृति रुआंसी-सी हो रही थी.
”वो कैसे?”
”अब यह भी मुझे ही बताना पड़ेगा? ख़ैर बताती हूं. पहले धरतीवासियों की संख्या बहुत कम थी वृक्षों की अधिक थी. लोग छोटे-से घर में संयुक्त परिवार में मिलजुलकर रहते थे, अब तो एकल परिवार होता है, उसमें भी नवजात शिशु तक के लिए भी 2-3 कमरे चाहिएं. अधिक घरों और गगनचुम्बी इमारतों के चलते वृक्षों की संख्या घटती जा रही है. पहले आप लोग एक वृक्ष काटते थे, दस लगाते थे, अब दस वृक्ष काटने पर एक वृक्ष लगाने की सोचते भी नहीं हो. तुमने हरे-भरे जंगलों की जगह कंकरीट के जंगल उगा लिए हैं. पहले मेरे झड़े हुए पत्ते मुझे ही खाद के रूप में मिल जाते थे, अब तुम पत्ते जला देते हो और मुझे मिलती है रासायनिक खाद की पीड़ा और तुम्हें फेफड़े काले करने के लिए कार्बन डाइ ऑक्साइड की सौग़ात!” प्रकृति चुप हो गई थी, मानो असहनीय पीड़ा के आधिक्य के कारण उसकी बोलती ही बंद हो गई थी.
प्रकृति की पीड़ा ने मनुष्य को भी संतप्त कर दिया था. शुक्र है प्रकृति की पीड़ा को उसने अपने मोबाइल से रेकॉर्ड कर लिया था, ताकि वह हर पल उसे देख-सुनकर सजग रह सके.
प्रकृति की छीजन को रोकने के लिए मनुष्य के मन में भी अधिकाधिक वृक्ष लगाने, प्लास्टिक और पॉलिथीन का प्रयोग न करने, पानी-बिजली-अन्य संसाधनों की सीमित प्रयोग करने तथा नदी-नालों को स्वच्छ रखने का संकल्प जन्म ले चुका था. प्रकृति की छीजन से सबसे अधिक छीजन तो उसके स्वास्थ्य की ही हो रही थी न!

*लीला तिवानी

लेखक/रचनाकार: लीला तिवानी। शिक्षा हिंदी में एम.ए., एम.एड.। कई वर्षों से हिंदी अध्यापन के पश्चात रिटायर्ड। दिल्ली राज्य स्तर पर तथा राष्ट्रीय स्तर पर दो शोधपत्र पुरस्कृत। हिंदी-सिंधी भाषा में पुस्तकें प्रकाशित। अनेक पत्र-पत्रिकाओं में नियमित रूप से रचनाएं प्रकाशित होती रहती हैं। लीला तिवानी 57, बैंक अपार्टमेंट्स, प्लॉट नं. 22, सैक्टर- 4 द्वारका, नई दिल्ली पिन कोड- 110078 मोबाइल- +91 98681 25244

One thought on “छीजन

  • लीला तिवानी

    5 जून ‘पर्यावरण दिवस’ के रूप में मनाया जाता है. आप लोग जानते ही हैं, कि आज हमारा पर्यावरण कितना प्रदूषित हो गया है! केवल एक दिन ‘पर्यावरण दिवस’ मनाकर हम अपने कर्त्तव्य की इतिश्री नहीं कर सकते. इसके लिए हमें सतत जागरुक रहना होगा. आज से हम लघुकथाओं में प्रकृति में पर्यावरण और प्रदूषण पर जागरुकता का प्रयास करेंगे. शायद कोई भी इससे प्रेरित होकर अन्य लोगों को भी जागरुक कर सके.

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