कहानी

तुम्हारा_कौन_हूँ_मैं – पति_या_पुत्र?

ले लो बधाई ललना की,
आयेगा घर में पलना भी
दादा नाचें दादी नाचें
बड़की वाली भाभी नाचें…….

उत्तर प्रदेश के जिला जालौन में संजयसिंह के घर हिजड़े बधाईयां गाकर नाच रहे थे जिसे देखने वालो का जमावड़ा लगा था।

“ना जी ना, ग्यारह हजार से कम एक रूपया नही लूँगी। लड़का हुआ है लड़का।” हिजड़े ते ताली पीटते हुये बच्चे की दादी से कहा।
“अब इतना भी कोई लेता है क्या ये लो और लला को आशीर्वाद दो।” दादी ने 5000 रूपये थमाते हुये कहा।

“देखो अम्मा, खुशी-खुशी देदो। रोज तो किसी के दरवाजे पे हिजड़े आते नही। घर में शादी हो या बच्चे तभी आते है उसमें इतना किच-किच करना ठीक थोड़ी है।”
“ग्यारह हजार से एक रूपया कम नही, पूरे ग्यारह।” 5000 रूपये लौटाते हुये दूसरे हिजड़े ने ताली पीटकर कहा।
“अरे चांद जैसो लला पाओ है। असल से ज्यादा सूत प्यारो होत है। क्यों ठीक कहा ना बाबू जी?“ हिजडे ने बच्चे के दादा की ओर जाते हुये कहा।
“अरे, फिर ले लियो। अबै इत्ते ही धर लेओ।“
“ना बाबूजी लूँगी तो पूरे ग्यारह नही तो खाली लौट जाउँगी बच्चे की आशीर्वाद देकर।“ हिजड़े ने मुँह बनाया और ताली पीटकर बच्चे के दादा से कहा।

“अरे दे देओ, हिजड़न का खाली हाथ जाइबो ठीक ना होय। बड़े दिनन के बाद तो घरे खुशियां आई हैं।“ बच्चे की दादा ने दादी को किनारे बुलाकर कहा। दादी के पैसे देने के बाद हिजड़ो ने बच्चे को आशीर्वाद दिया और खुशी खुशी चले गये।

हिजड़ों के जाने के बाद संजय के पिता ने अपनी पत्नी से कहा “जानती हौ! अपने मोड़ा (लड़का) की पहली पत्नी के गुजरें के बाद तो घर मे मनहूसियत छा गई हती। सुजाता फिर से ई घर मा ख़ुसी ले आई है। तो का भा, सुजाता की शादी भी हो गई हती। बिचारी अनाथ की शादी के दुई साल के भीतर मांग सूनी हो गई हती।”

“चलो ठीक है। संजय अउर सुजाता दोनों अधूरे हो गए रहें अब तो दोनों खुश हैं। बस अब कोहू की नज़र न लगे हमाये बच्चन को।” संजय की मां ने राहत की लंबी सांस लेते हुए कहा।

बच्चे के आने के से संजय सिंह का परिवार बहुत था। दादा-दादी के दुलारे का नाम रोहन रखा गया। रोहन अपनी माँ को शायद ही कभी मां कहता था। वो अधिकतर सुजाता का नाम लेकर ही पुकारता था। ज़्यादा से ज़्यादा समय रोहन अपने दादा से साथ रहता। 5 साल के रोहन को बड़ों की तरह बात करना, पुराने किस्से-कहानियां सुन्ना बहुत अच्छा लगता था। अक़्सर वो भी अपने दादा-दादी को कहानियां सुनाया करता जिसे सुनकर वो दोनों अचंभित रह जाते कि इतना छोटा बच्चा इस तरह की कहानी कैसे जनता है जो उसकी उम्र से बड़े बच्चे भी न कह सकें।

बातों-बातों में रोहन कहता कि जब हम कानपुर गए थे तो ऐसा किया। हमने फ़िल्म देखी थी और उस फिल्म की कहानी भी सुनाता। संजय के माता-पिता कई बार डर भी जाते। जो बच्चा अपने जिले से बाहर कभी गया न हों वो दूसरे जिले की जगहों के नाम और जाने का रास्ता ठीक-ठीक कैसे बता देता है। संजय की माँ को लगता कि कोई भूत प्रेत के साये ने रोहन को अपने वश में कर लिया होगा।

रोहन को तांत्रिक के पास भी ले जाया गया पर असाधारण बात करने वाला रोहन सभी को एक सामान्य बच्चा ही लगा। संजय रोहन को दिमाग़ के डॉक्टर के पास भी ले गया पर डॉक्टर ने कहा कि हर बच्चे की मानसिक विकास की गति भिन्न-भिन्न होती है। चिंता की कोई बात नहीं।

जब भी संजय रोहन के सामने आता, पता नही रोहन को क्या हो जाता। घर वालों को लगता कि संजय रोहन को समय नही देता इसलिए रोहन उससे नाराज़ रहता है। समय अपनी गति से तो चलता रहता है उसी समय ने 10 साल की उम्र में रोहन को और अधिक गंभीर बना दिया था।

रोहन अक़्सर सुजाता को उसकी साड़ी के रंग के लिए टोकता तो सुजाता को अनायास ही अपने पहले पति पंकज की याद आ जाती। एक दिन रोहन शाम को बैठा पढ़ रहा था तभी “धड़ाम” की ज़ोरदार आवाज आई।

आवाज सुनकर रोहन भीतर भागा तो उसने देखा सुजाता ज़मीन पर गिरी है और पास ही एक मेज़ के ऊपर छोटी कुर्सी गिरी पड़ी थी। उसे देखकर रोहन चिल्लाने लगा। ” तुमसे हज़ार बार कहा है मेज के ऊपर कुर्सी रखकर मत चढ़ा करो पर नहीं। अभी पिछली बार की तरह पैर टूट जाता तो समझ आता। वो तो कानपुर मेडिकल कालेज में मेरा दोस्त राजन था नही तो हो जाती अपाहिज़ ज़िन्दगी भर के लिए।” सुनकर सुजाता सन्न रह गई।

“इसे कैसे पता कानपुर में एक बार मेरा पैर टूटा था और राजन भइया की मदद से मेरे ईलाज़ में कोई दिक्कत नही आई थी। तब तो ये पैदा भी नही…..” सोचते हुए सुजाता ने आंख भरकर रोहन की तरफ़ देखा।

“अब ऐसे मत देखा करो सुम्मी! तुमको पता है ना तुम्हारी आँखों से मेरा गुस्सा हवा हो जाता है।” जैसे ही रोहन ने ये शब्द कहे सुजाता अपनी जगह पर खड़ी-खड़ी जम सी गई क्योकि उसे “सुम्मी” उसका पहला पति पंकज के सिवा किसी ने नही कहा था।

रोहन भी थोड़ी देर बाद अपनी चेतना में लौटा और चुपचाप कुर्सी और मेज को उठाकर उसकी जगह पर रखते हुए सुजाता से बोला ” क्या हो गया था? अभी चोट लग जाती तो किसे बुलाता। दादा-दादी भी घर मे नहीं हैं।” बोलकर रोहन कमरे से बाहर चला गया। सुजाता अभी भी बुत बनी खड़ी थी।

शाम को जब संजय आया तो सुजाता ने उसे सारी बात बताई और अपने पहले पति के बारे में जानने के लिए संजय को कानपुर जाने को कहा। संजय कानपुर गया और दो दिन बाद जब संजय घर लौटा तो उसने सुजाता को बताया कि पंकज की मृत्यु के बाद पंकज के माता-पिता कानपुर छोड़कर हमेशा के लिए अपने गांव चले गए थे। ये सारी बातें रोहन भी खड़ा सुन रहा था।

“कन्नौज के पास “भड़िया” गांव है, वहीं गए होंगे।” रोहन एकाएक बोल पड़ा।
“तुम्हें कैसे पता???” संजय को याद आया किसी ने पंकज के माँ-बाप के गाँव का यही नाम बताया था। रोहन की बात सुनकर सुजाता और संजय रोहन को घूर कर देखने लगे।

“क्या मुझे पता है?” रोहन ने संजय से पूछा।
“कुछ नहीं कहकर संजय अपने कमरे में चला गया। सुजाता भी उसके पीछे-पीछे चली गई। दोनों को समझ नही आ रहा था कि रोहन ऐसा व्यवहार क्यों कर रहा है? अपने ही बच्चे को समझ पाने में लाचार दोनों ने रोहन को बाँदा जिले के मौनी बाबा आश्रम में ले जाने की सोची।

सुबह के 10 बजे के पहले ही संजय और सुजाता मौनी बाबा आश्रम में पहुँच गए। वहां पर उन्हें 1 महीने रोहन को वहीं रखने के लिए कहा गया। कुछ दिन तो वो दोनों रोहन के साथ वहीं रहे बाद में रोहन को बाबा के पास छोड़कर गांव वापस आ गए। बाबा ने कहा की कुछ दिनों के पश्चात वो स्वयं रोहन को उनके पास लेकर आएंगे।

1 माह के उपरान्त मौनी बाबा रोहन को लेकर उसके गांव गए। रोहन पूर्ण रूप से बदल सा गया था। उसके चेहरे पर तेज़ था और एक अदभुत शांति की झलक। जैसे ही रोहन अपने दादा-दादी के सामने गया उसने दोनों को झुककर प्रणाम किया। संजय और सुजाता को जैसे ही रोहन के वापस आने की सूचना मिली दोनों ही दरवाजे पर रोहन से मिलने आ गए।

आज पहली बार रोहन ने संजय को प्रणाम किया। सुनकर संजय की आंखे भर आईं। फ़िर रोहन ने सुजाता की तरफ़ देखा और एक के बाद एक वो बातें बताना प्रारंभ कर दिया जिसे पंकज और सुजाता के अतिरिक्त कोई और नही जानता था।

अंत मे रोहन ने सुजाता से सिर्फ़ इतना पूछा “आख़िर कौन हूँ मैं, तुम्हारा पुत्र या पति?? कहकर रोहन मौनी बाबा के साथ लौटकर चला गया। संजय और सुजाता दरवाज़े पर खड़े-खड़े रोहन को तब तक देखते रहे जबतक वो आंखों से ओझल नहीं हो गया।

— मानस

सौरभ दीक्षित मानस

नाम:- सौरभ दीक्षित पिता:-श्री धर्मपाल दीक्षित माता:-श्रीमती शशी दीक्षित पत्नि:-अंकिता दीक्षित शिक्षा:-बीटेक (सिविल), एमबीए, बीए (हिन्दी, अर्थशास्त्र) पेशा:-प्राइवेट संस्था में कार्यरत स्थान:-भवन सं. 106, जे ब्लाक, गुजैनी कानपुर नगर-208022 (9760253965) dixit19785@gmail.com जीवन का उद्देश्य:-साहित्य एवं समाज हित में कार्य। शौक:-संगीत सुनना, पढ़ना, खाना बनाना, लेखन एवं घूमना लेखन की भाषा:-बुन्देलखण्डी, हिन्दी एवं अंगे्रजी लेखन की विधाएँ:-मुक्तछंद, गीत, गजल, दोहा, लघुकथा, कहानी, संस्मरण, उपन्यास। संपादन:-“सप्तसमिधा“ (साझा काव्य संकलन) छपी हुई रचनाएँ:-विभिन्न पत्र- पत्रिकाओं में कविताऐ, लेख, कहानियां, संस्मरण आदि प्रकाशित। प्रेस में प्रकाशनार्थ एक उपन्यास:-घाट-84, रिश्तों का पोस्टमार्टम, “काव्यसुगन्ध” काव्य संग्रह,