गीतिका/ग़ज़ल

गीतिका

टपकते आंसुओं को खारा पानी न समझो,
हो गई बात यूँ ही , आनी जानी न समझो।

आहत मन के आह से बरसेगा तेजाब ,
इसी मोड़ पर खत्म ये कहानी न समझो ।

दुष्कर्म तुम्हारा, मर्यादा नारी की कुचली?
इतनी तो बेमोल ज़िंदगानी न समझो ।

नहीं खत्म इसी बात पर ये बात होगी ,
यूँ रहेगी हमेशा तुम्हारी जवानी न समझो।

अरे दुष्ट! इन्हीं आँसुओं मे डूब जायेगा ,
करेगी माफ कोई रूह इन्सानी न समझो ।

— साधना सिंह

साधना सिंह

मै साधना सिंह, युपी के एक शहर गोरखपुर से हु । लिखने का शौक कॉलेज से ही था । मै किसी भी विधा से अनभिज्ञ हु बस अपने एहसास कागज पर उतार देती हु । कुछ पंक्तियो मे - छंदमुक्त हो या छंदबध मुझे क्या पता ये पंक्तिया बस एहसास है तुम्हारे होने का तुम्हे खोने का कोई एहसास जब जेहन मे संवरता है वही शब्द बन कर कागज पर निखरता है । धन्यवाद :)