इतिहास

महात्मा गांधी का शिक्षा दर्शन

राष्ट्रपिता महात्मा गांधी का व्यक्तित्व एवं कृतित्व आदर्शवादी रहा है। वे न केवल एक महान राजनीतिज्ञ, दार्शनिक, विचारक और समाज सुधारक थे वरन अपने युग के एक महान शिक्षा शास्त्री भी थे। गांधी जी ने शिक्षा पर कोई ग्रंथ नहीं लिखा जिससे उनके शिक्षा संबंधी विचारों को क्रमानुसार समझा जा सके। उनके शिक्षा संबंधी विचार उनकी सभाओं और लेखों के माध्यम से समय-समय पर व्यक्त होते रहे। उनका मानना था कि सामाजिक उन्नति में शिक्षा का महत्वपूर्ण योगदान होता है। शिक्षा के बिना स्वस्थ समाज का निर्माण करना असंभव है ।”शोषण विहीन समाज की स्थापना “उनका मूल मंत्र था। शिक्षा के माध्यम से ही यह संभव हो सकता है ।गांधी जी ने शिक्षा के उद्देश्यो और सिद्धांतों की व्याख्या की ।प्रारंभिक शिक्षा उनके शिक्षा दर्शन का मूर्त रूप है। उनका मानना था कि औपनिवेशिक शिक्षा व्यवस्था भारत के लिए हानिकारक है ।उन्होंने अंग्रेजों द्वारा विकसित शिक्षा पद्धति में तीन महत्वपूर्ण कमियां बता ईं। पहली, विदेशी संस्कृति पर आधारित होने के कारण स्थानीय संस्कृति लगभग समाप्त हो गई थी, दूसरी यह कि हृदय और हाथ की संस्कृति की उपेक्षा कर पूर्णता दिमाग तक ही सीमित करती है और तीसरी विदेशी भाषा के माध्यम से शिक्षा। गांधी जी ने विदेशी शिक्षा को गुलामी का कारण बताते हुए कहा है, “अंग्रेजी शिक्षा लेकर हमने राष्ट्र को गुलाम बनाया है अंग्रेजी शिक्षा से दंभ, राग, जुल्म वगैरह बढ़े हैं।”उन्होंने एक ऐसी शिक्षा प्रणाली विकसित करने पर बल दिया जिससे मानव श्रम को उसका उचित स्थान देते हुए संवेदनशील हृदय तथा मस्तिष्क का उचित विकास कर सकें उनका मानना था कि भारत में बच्चों को 3H अर्थात head ,hand, heart की शिक्षा दी जाए । शिक्षा उन्हें स्वावलंबी बनाएं वे देश की मजबूती में महत्वपूर्ण योगदान दें।
गांधी जी ने शिक्षा को परिभाषित करते हुए कहा है ,”शिक्षा से मेरा अभिप्राय बालक में निहित शारीरिक मानसिक एवं आत्मिक श्रेष्ठतम शक्तियों का अधिकतम विकास है।”वे शिक्षा को सार्वभौमिक रूप से प्रसारित करना चाहते थे। उनका मंतव्य था कि साक्षरता शिक्षा के माध्यम से श्रम के प्रति निष्ठा एवं संतुलित दृष्टिकोण वाले व्यक्तियों का जन्म होता है जो नवीन भारत का निर्माण करने की क्षमता रखते हैं ।गांधीजी के अनुसार, शिक्षा योजना का लक्ष्य बालक की व्यवहार कुशलता होना चाहिए ।इसके लिए उसे हस्त कार्य, निरीक्षण, अनुभव ,प्रयोग, सेवा तथा प्रेम का आश्रय लेना होगा ।उनके कथन अनुसार ,”जो शिक्षा चित्त की शुद्धि न करें, मन और इंद्रियों को वश में रखना न सिखाए, निर्भयता और स्वावलंबन पैदा न करें ,निर्वाह का साधन न बनाएं तथा स्वतंत्र रहने का हौसला और सामर्थ्य न उपजाए,उस शिक्षा में चाहे जितनी जानकारी का खजाना तार्किक कुशलता और भाषा पांडित्य मौजूद हो वह सच्ची शिक्षा नहीं ।”वेआत्मसाक्षात्कार को ही मोक्ष मानते थे। उन्होंने यथार्थ ज्ञान को विद्या और शेष को अविद्या कहा है ।शिक्षा का वृहद अर्थ मानव को समाज के अनुकूल बनाना है। मनुष्य और समाज का आध्यात्मिक और बौद्धिक उत्कर्ष शिक्षा के माध्यम से ही संभव है। शिक्षा द्वारा समाज अपनी संस्कृति की रक्षा करता है ।सुख समृद्धि लाने का कार्य भी शिक्षा द्वारा ही संभव है।
महात्मा गांधी ने शिक्षा के सभी अंगों यथा शिक्षा का स्वरूप, उद्देश्य, शिक्षण विधियां ,पाठ्यक्रम, शिक्षक, शिक्षार्थी संबंधी अनुशासन आदि पर अपने विचार दिए हैं ।उच्च शैक्षिक विचार, प्रखर चिंतन एवं मनन की उत्कृष्टता उन्हें शिक्षा दार्शनिक के रूप में प्रतिष्ठित करती है। गांधीजी के अनुसार,” जब तक सच्चा जीवन जीना नहीं आता ,तब तक सारी पढ़ाई बेकार है। सच्चे जीवन में बनावट की गुंजाइश नहीं है।” वास्तविक शिक्षा वही है जो व्यक्ति को यथार्थ एवं वस्तु गत ज्ञान प्रदान करती है। वे जीवन उपयोगी शिक्षा पर बल देते थे। उन्होंने शिक्षा के व्यापक उद्देश्य निश्चित किए जिन्हें मुख्यतः दो भागों में बांट सकते हैं….
1. वैयक्तिक उद्देश्य
गांधीजी ने चरित्र निर्माण को शिक्षा का उच्चतम लक्ष्य माना। उनका विचार था कि उच्च चरित्र वाला बालक अन्य सभी बातों को स्वत :सीख सकता है। वे केवल बौद्धिक विकास को विकलांगता मानते थे और 3 एच को सर्वांगीण विकास के लिए आवश्यक कहा।
2. सामाजिक उद्देश्य
गांधी जी शिक्षा द्वारा स्वावलंबी नागरिक के निर्माण के पक्षधर थे। मानव श्रम की शिक्षा देकर वे कुशल नागरिकों का निर्माण करना चाहते थे। वे समाज के सभी लोगों के विकास के समान अवसर के पक्षधर थे। इसके लिए वे शिक्षा को शक्तिशाली साधन मानते थे ।वह केवल अंग्रेजी दासता से ही मुक्त नहीं होना चाहते थे वरन वे शोषण की प्रत्येक संभावना को ही समाप्त करना चाहते थे।
बुनियादी शिक्षा
विदेशी शासन के दौरान भारतीयों के ऊपर थोपी गई शिक्षा पद्धति से देश और समाज का कल्याण संभव नहीं था ।शिक्षा का उद्देश्य सरकारी मशीन को चलाने के लिए बाबू तैयार करना था ।इस प्रणाली से शिक्षित व्यक्ति शरीर से तो भारतीय होता किंतु हृदय और मस्तिष्क से विदेशी होता था ।गांधीजी ने विचार किया कि यदि राजनैतिक स्वराज की प्राप्ति हो भी जाएगी तो भी सामाजिक एवं आर्थिक स्वतंत्रता तब तक नहीं मिल पाएगी जब तक की शिक्षा को राष्ट्रीय आवश्यकताओं के अनुरूप नहीं बनाया जाता है ।उन्होंने अपने पाठ्यक्रम में निम्नलिखित विषयों को स्थान दिया-

1.   शिल्प एवं हस्तकला उद्योग (जैसे कृषि, बागवानी, काष्ठ कला, सिलाई कटाई इत्यादि)
2.   मातृभाषा( हिंदी के प्रयोग पर बल)
3.   व्यावहारिक गणित (अंकगणित, बीजगणित ,रेखागणित, नापतोल आदि)
4.   सामाजिक अध्ययन( नागरिक शास्त्र, इतिहास ,भूगोल आ दि)
5.   सामान्य विज्ञान (वनस्पति विज्ञान, प्राणी विज्ञान, रसायन शास्त्र, भौतिक शास्त्र)
6.   संगीत एवं चित्रकला
7.   स्वास्थ्य विज्ञान( स्वच्छता, व्यायाम, क्रीडा)
8.   आचरण शिक्षा( नैतिक शिक्षा ,समाज सवा आदि)
शिक्षण विधि
गांधीजी ज्ञान की अखंडता के पक्षधर थे। किंतु सुविधा की दृष्टि से वे ज्ञान की शाखाओं के विभक्ति करण का समर्थन करते थे। उन्होंने शिक्षा प्रदान करने के लिए “समन्वय विधि” या “समवाय विधि” को उपयुक्त माना ।इस विधि में केंद्र में किसी शिल्प उद्योग को रखकर अन्य विषयों को इससे जोड़कर पढ़ाने की प्रक्रिया की जाती है ।जैसे सिलाई कताई के साथ-साथ विभिन्न सभ्यताओं में प्रचलित वस्त्रों की जानकारी देकर इतिहास का व्यावहारिक ज्ञान तथा कच्चे माल की खरीदी एवं तैयार माल की बिक्री के दौरान लाभ हानि की गणना द्वारा गणित के व्यवहारिक उपयोग को समझाया ।समन्वय विधि में अन्य दो महत्वपूर्ण आयाम——-प्राकृतिक वातावरण और सामाजिक वातावरण है। प्राकृतिक वातावरण से समन्वय का अर्थ है ,प्राकृतिक परिवेश या प्राकृतिक परिवर्तनों को आधार मानकर विभिन्न विषयों का अध्ययन जबकि सामाजिक वातावरण के अंतर्गत सामाजिक परिवेश धार्मिक सामाजिक एवं राष्ट्रीय त्योहार एवं अन्य सांस्कृतिक आयोजन आते हैं, जिनसे भाषा, गणित ,कला आदि का प्रभावी अध्ययन कराया जा सकता है।

शिक्षा का माध्यम
गांधी जी ने शिक्षा के माध्यम के रूप में मातृभाषा पर बल दिया।वे अंग्रेजी को शोषण का एक माध्यम मानते थे ।उनका मानना था कि विद्यालय में इस प्रकार का वातावरण रहना चाहिए कि बालक सहज रूप में विचारों का आदान प्रदान कर सके। यह मातृभाषा से ही संभव है। इससे वह अपनी धार्मिक और राजनीतिक विरासत के संपर्क में भी बना रहता है। वे कहा करते थे ,”यदि मैं तानाशाह होता तो आज ही विदेशी भाषा में शिक्षा दिया जाना बंद कर देता जो आनाकानी करते उन्हें बर्खास्त कर देता मैं पाठ्य पुस्तकों के तैयार किए जाने का इंतजार न करता।”

पाठ्यक्रम
गांधीजी ने उद्देश्यों के अनुसार पाठ्यक्रम में निर्धारित ज्ञान या क्रिया को विद्यार्थी तक पहुंचाने की बात कही है । वे प्रचलित शिक्षण पद्धति को दोषपूर्ण समझते थे। उनका कहना था कि अध्यापक को समाज और बालक दोनों की आवश्यकताओं का पता लगाकर बालक की क्षमता रुचि तथा स्वभाव आदि के अनुकूल पाठ्यक्रम का निर्माण करना चाहिए तभी समस्त उपलब्धियों को प्राप्त किया जा सकता है प्राथमिक शिक्षा का पाठ्यक्रम कम से कम 7 वर्ष का होना चाहिए । विद्यार्थियों को मैट्रिक तक निर्धारित पाठ्यक्रम का ज्ञान कराना चाहिए। शिक्षा मातृभाषा में होनी चाहिए तथा माध्यमिक स्तर तक की शिक्षा में अंग्रेजी को अनिवार्य नहीं करना चाहिए।
गांधीजी का मानना था कि विद्यालयों में नैतिक शिक्षा अनिवार्यत: होनी चाहिए ।वे धार्मिक एवं सांप्रदायिक शिक्षा के विरोधी थे। क्योंकि उनके मतानुसार इस प्रकार की शिक्षा से सहज मानवीय दृष्टिकोण तथा नैतिक चारित्रिक गुणों का विकास भली प्रकार नहीं होगा ।साथ ही सभी धर्मों का समान आदर नहीं कर सकेंगे।
देश के स्वतंत्र होने पर बुनियादी शिक्षा को राष्ट्रीय शिक्षा के एक अभिन्न अंग के रूप में स्वीकार किया गया और उसके प्रचार-प्रसार के लिए अनेक प्रयत्न किए गए। नवीन बुनियादी स्कूल खोले गए और बेसिक शिक्षकों के प्रशिक्षण का कार्य भी प्रारंभ हुआ।इस क्षेत्र में हिंदुस्तानी तालिमी संघ, विश्व भारती और जामिया ने सन 1948 में ही उल्लेखनीय कार्य प्रारंभ कर दिए। प्रथम पंचवर्षीय योजना में भारत सरकार ने बेसिक शिक्षा के प्रसार के लिए योजना बनाई इस योजना के अंतर्गत स्नातकोत्तर बेसिक प्रशिक्षण महाविद्यालय की स्थापना करने का निर्णय लिया गया योजना के अंतर्गत इन महाविद्यालयों के पाठ्यक्रम प्रायोगिक कार्य आदि को भी सम्मिलित किया गया था कुछ चुनिंदा स्थानों पर एक प्रशिक्षण विद्यालय की  स्थापना की भी योजना थी। इस योजना के अंतर्गत सामाजिक शिक्षा संस्थान को भी शामिल किया गया प्रथम पंचवर्षीय योजना में इस बात पर भी बल दिया गया कि ग्रामीण क्षेत्रों के साथ-साथ शहरी क्षेत्रों में भी बुनियादी शिक्षा को विकसित किया जाए और शहरी क्षेत्रों की आवश्यकता एवं परिस्थिति के अनुरूप उसमें परिवर्तन कर लिया जाए। इस योजना की कुछ प्रमुख बातें इस प्रकार थी…..
1.  वर्तमान प्रारंभिक स्कूलों में बेसिक प्रणाली के अनुरूप परिवर्तन करना।
2.  नवीन बेसिक स्कूलों की स्थापना करना।
3. नवीन बेसिक प्रशिक्षण संस्थाओं की स्थापना करना।
4.  वर्तमान प्रशिक्षण संस्थाओ को
बेसिक प्रणाली में ढालना।
5.   प्रारंभिक स्कूलों में हस्तकला के शिक्षण को प्रारंभ करना।
6. हस्तकला के शिक्षकों का प्रशिक्षण।
7.  बेसिक स्कूलों के लिए पाठ्य सामग्री का प्रबंध करना।

देश के विभिन्न राज्यों में बेसिक शिक्षा का अध्ययन करने के लिए केंद्र सरकार ने एक समिति का गठन किया केंद्रीय शिक्षा परामर्श दात्री परिषद ने भी बेसिक शिक्षा के निमित्त एक स्थाई समिति का गठन किया जिसका काम बेसिक शिक्षा के विषय में परिषद को परामर्श देना है। द्वितीय पंचवर्षीय योजना के प्रारंभ में संपूर्ण देश में लगभग 48000 बेसिक स्कूलों की स्थापना कर दी गई थी दूसरे योजना काल में भी बेसिक शिक्षा के प्रचार प्रसार के लिए अनेक कार्यक्रम अपनाए गए जूनियर बेसिक स्कूलों को सीनियर बेसिक स्कूलों में परिवर्तित किया गया तथा साधारण प्रारंभिक स्कूल और मिडिल स्कूल भी बेसिक स्कूलों की प्रणाली में डाले गए राष्ट्रीय बेसिक शिक्षा अनुसंधान केंद्र ने बेसिक शिक्षा के लिए उपयोगी साहित्य जुटाए साथ ही केंद्र ने” बुनियादी तामील “नाम से एक पत्रिका भी निकालना प्रारंभ कर दिया।
पंचवर्षीय योजना में अनिवार्य एवं निशुल्क शिक्षा की व्यवस्था के लिए बेसिक शिक्षा प्रणाली स्वीकृत की गई है। बेसिक शिक्षा को राष्ट्रीय शिक्षा का अंग माना  है। किंतु आशा के अनुरूप परिणाम प्राप्त नहीं हो पाए हैं जिसके अनेक कारण हैं। सबसे बड़ा कारण बेसिक शिक्षा के अर्थ के विषय में भिन्न मत होना था। भारत सरकार ने सन 1956 में इस कठिनाई को दूर करने के लिए “द कांसेप्ट ऑफ बेसिक एजुकेशन” नामक एक पुस्तिका का प्रकाशन किया। उसने श्री जी रामचंद्रन की अध्यक्षता में एक समिति का भी गठन किया जिसने देश में बेसिक शिक्षा की प्रगति का मूल्यांकन करके अनेक महत्वपूर्ण सुधारात्मक सुझाव दिए ।समिति की मुख्य सिफारिश यह थी कि प्रत्येक राज्य के एक विशेष चुने हुए क्षेत्र में बेसिक प्रशिक्षण महाविद्यालय की स्थापना की योजना उपयुक्त नहीं है। समिति का सुझाव था कि संपूर्ण प्रारंभिक शिक्षा को ही बेसिक शिक्षा बना दिया जाए। कोठारी शिक्षा आयोग ने अपनी संस्तुति द्वारा बेसिक शिक्षा को लगभग समाप्त कर दिया ।किंतु कार्यानुभव और समाज उपयोगी उत्पादक कार्य के रूप में शिक्षा की आत्मा के रूप में यह आज भी विद्यमान है।
उच्च शिक्षा के संबंध में गांधी जी ने स्कूल, कॉलेज को विशेष महत्वपूर्ण नहीं माना है ।वे शिक्षा को सतत चलने वाली प्रक्रिया मानते थे। यद्यपि गांधीजी आदर्श के रूप में  कॉलेज जाने कोऔपचारिक व आवश्यक मानते थे। गांधीजी ने एक व्यावहारिक दृष्टिकोण अपनाते हुए उच्च शिक्षा के संबंध में कुछ सुझाव दिए जैसे उच्च शिक्षा पर होने वाला व्यय राज्य द्वारा वह नहीं होना चाहिए। तकनीकी और अभियांत्रिकी शिक्षा का व्यय भार प्रतिष्ठानों द्वारा वहन किया जाना चाहिए इसी प्रकार कृषि स्वास्थ्य कला विषयों के शिक्षण पर भी उन्होंने सुझाव दिए उनके अनुसार उच्च शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी नहीं होना चाहिए क्योंकि इसके कारण ही राष्ट्र की हानि हुई है उन्होंने स्त्री शिक्षा के प्रसार का भी समर्थन किया उन्होंने कहा की स्त्री शिक्षा उतनी ही आवश्यक है जितना पुरुषों में क्योंकि दोनों के कार्यक्षेत्र में अंतर है इसलिए शिक्षा पद्धति में भी अंतर होना चाहिए स्त्रियों की शिक्षा गृह प्रबंध बाल विज्ञान तथा संगीत आदि के विषय में होनी चाहिए।
संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि गांधी जी ने शिक्षा संबंधी अपनी विचारधारा में बालकों को आत्मनिर्भर बनाने पर बल दिया है उन्होंने शिक्षा प्रक्रिया को दैनिक क्रियाकलापों एवं मूल आवश्यकताओं से जोड़ने का नवीन प्रयास किया।  गांधीजी के शिक्षा संबंधी विचार कपूर कल्पना का परिणाम न होकर उनके शिक्षा संबंधी प्रयोगों पर आधारित है। उनका मानना था कि वास्तविक भारत गांवों में बसता है और किसी भी शिक्षा पद्धति की सफलता यहां की ग्रामीण शिक्षा के परिणामों पर ही निर्भर होती है। उन्होंने भारतीय समाज के लिए बेसिक शिक्षा को ही सर्वोत्तम शिक्षा माना है। उनके अनुसार इस प्रकार की शिक्षा द्वारा बालक व्यवहार में कुशलता प्राप्त करता है जो देश और समाज के विकास के साथ-साथ उसके स्वयं के विकास के लिए भी आवश्यक है क्योंकि इससे उसमें स्वावलंबन का गुण आता है साथ ही जीविकोपार्जन के उद्देश्य की भी पूर्ति होती है।

—  कल्पना सिंह 

*कल्पना सिंह

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