कविता

बदलते रिश्ते

कहते हैं अपने पर अपनापन नहीं ,
कहते हैं भाई पर भाईचारा नहीं ।

रिश्ते, रिश्तों का सगा नहीं,
कोई नहीं जो एक दूसरे को ठगा नहीं।

दुनिया भर गई है, स्वार्थ से,
किसी को किसी से प्यार नहीं।

खून के रिश्ते भी पड़ गये है फीके,
क्या करेंगे लोग अब इस दुनिया में जीके।

बदलती दुनिया में बदलते रिश्तों का अजब है ढंग,
न जाने कौन कब दिखाए अपना रंग।

कौन दूर है और कौन है संग,
हर रिश्तों के बीच छिड़ी हुई है जंग।

गम में दूर मतलब मे रिश्ते हो जाते हैं साथ,
धन दौलत के लिए हो रहे हैं आपस में दो दो हाथ।

क्षेत्र, भाषा, ऊँच, नीच छाई है धर्म और जात पात,
इन्हीं सब कुरितियों की हो रही है अब बरसात।

— मृदुल शरण, मुंबई