हास्य व्यंग्य

व्यंग्य – खामोश! संविधान खतरे में है।

प्रसिद्ध है कि हमारे देश का संविधान सबसे बड़ा है। कुछ समय से देखने में आ रहा है कि हमारा संविधान साल में दो-चार बार खतरे में पड़ता रहता है। समझ नहीं आता ‘संविधान’ ताकतवर है या ‘खतरा’। देवराज इंद्र का सिंहासन न जाने किस धातु का बना था। इधर धरती पर कोई बाबा जी या दैत्य ध्यान लगाकर बैठे और उनका सिंहासन खतरा भाँप कर चरमराने लगता था। फिर बेचारे को ‘बाइयों’ के सहारे उनकी लंगोट ढीली कर अपने सिंहासन को बचाना पड़ता था। “भारत” नामकरण इंद्र के इसी पराक्रम का परिणाम है। हमारे संविधान की दशा अधिक दयनीय है। उसे देवों और दानवों दोनों से ही खतरा दिखाई दे रहा है। दोनों चिल्लाते रहते हैं-“संविधान खतरे में है।”
संविधान के सबसे रोचक अंग हैं- अधिकार और कर्तव्य। नागरिकों को अधिकार प्रेमिका की तरह लगते हैं। वह उसे गले से लगाकर रखते हैं। कर्तव्यों से उसे सड़ांध आती है। उसे वह दूसरों के लिए सुरक्षित रखता है। अधिकारों की आड़ में गधे भी न सिर्फ घुड़दौड़ में शामिल होते जा रहे हैं बल्कि अरबी नस्ल के घोड़ों को धूल चटा रहे हैं। नालायक गधे अमृत गटक रहे हैं और घोड़ों के हिस्से में देशी चने भी न आ रहे।
संविधान ने सभी को समानता का अधिकार दिया है। पर कोई समान नहीं रहना चाहता। हर कोई दूसरे से बड़ा बनना चाहता है। एक धर्म को दूसरे से डर लग रहा है तो समान लोगों को चिंता खाए जा रहीं है कि ‘वह’ कहीं मुझे ना पछाड़ दे। सब एक-दूसरे की टाँग खींचने में लगे हैं। यही समानता का अधिकार है।
न्याय का चीरहरण हो रहा है। कभी साप्ताहिक तो कभी मासिक या जैसी उसके दलालों को सुविधा हो। फाँसी के फंदे की कमर लचीली हो गयी है। कभी कसती है , कभी ढीली पड़ती है। अपराधी खुश हैं कि काजल की कोठरी में घुसने पर दाग तो लगा पर बाल अब तक बाँका ना हो सका। कलैंडर की तारीखें इतिहास में सिमटने को फड़फड़ा रही हैं लेकिन यमराज को चाय पीने से फुरसत नहीं है।
मेरा पड़ोसी जो पिछले कई चुनावीं में मतदान करने नहीं गया, गला फाड़-फाड़कर चिल्ला रहा था कि संविधान खतरे में है। दिनभर में पान और गुटका खाकर सड़कों को रंगने वालों को संविधान की चिंता खाए जा रही है। नगर के चौराहों पर बहू-बेटियों को घूरने वालों को संविधान की इज़्ज़त खतरे में नज़र आ रही है। तारीफ तो ये है साहब कि रिश्वत के नोटों की गड्डी के नीचे कराहते संविधान की कराह किसी को सुनाई नहीं दे रही। बेरोज़गारों की लंबी कतार में खड़े चुटिया और दाढ़ी धारियों की हाथों मे रखी सनदों टँका है-संविधान खतरे में है। निरक्षर देश में कभी संविधान खतरे में नहीं रहा। जैसे-जैसे देश डिग्रीधारी हो रहा है, संविधान पर खतरा बढ़ता जा रहा है।
वह देखिए । वहाँ दूर । कटा-फटा। दयनीय। क्षत-विक्षत। आपका कौन हैं? वह बोला-हिन्दुस्तान! भारत!! इंडिया!!!

— शरद सुनेरी