गीत/नवगीत

वासंती मौसम का सिंगार।

वासंती मौसम का कैसा, उजड़ गया सिंगार?
बागों में खिले फूल लाश के, कहीं बिछी अंगार!

चीख रही फागुन में कोयल, भँवरें शोर मचाते
रजनी की काली चादर में, जुगनू दीप छिपाते
पूनम की उजली रातों में, उल्लू करें पुकार,
बागों में खिले फूल लाश के, कहीं बिछी अंगार!

माली दुश्मन बन जाए तो, कौन करे निगरानी?
चींटी-झींगुर और केंचुए, करते हैं मनमानी
काँटे भी तो आज कर रहे, मेंढ़क का सत्कार,
बागों में खिले फूल लाश के, कहीं बिछी अंगार!

कलियों के घूँघट से नागिन, साँझ-सुबह फुफकारे
गिद्धों के सरदार बने हैं, बुलबुल के रखवारे
रंग बदलकर गिरगिट ने दी, मोरों को ललकार,
बागों में खिले फूल लाश के, कहीं बिछी अंगार!

वन-उपवन-खलिहानों पर जब, टिड्डी मँडराते हैं
तब बहार में भी गुलशन के, दिन बदतर आते हैं
कुचलो फन डसनेवालों के, करो आर या पार,
बागों में खिले फूल लाश के, कहीं बिछी अंगार!

— शरद सुनेरी