हास्य व्यंग्य

लिल्लीघोड़ी पर सवार कौवा

“आपके लेखन में साहित्यिकता नहीं है!” लेखकीय मन से जुड़ने की कोशिश में मेरे सामाजिक सरोकार वाले मन ने मुझसे कहा।
“रात-दिन तुम्हारी चिंता में रहता हूँ और इसी कारण लेखकीय कर्म में निरत हूँ, फिर यह कैसे कह सकते हो?” मेरे अंदर का लेखक बोला।
“इसलिए कि आपका लेखन मुझे मान्यता दिलाने में असफल है..” मेरे सामाजिक सरोकार ने जैसे रूँआंसेपन से कहा।
“सरोकार महोदय! तुम्हें मान्यता की इतनी चिंता हो रही है! क्या बिना मान्यता मिले तुम सरोकार और मैं लेखक नहीं?” मुझे अपने सरोकारी भाव से चिढ़ टाइप हुई।
“नहीं मैं सरोकार हूँ और रहुंगा, दरअसल तुम मुझसे सीधे आ जुड़ते हो, जबकि तुम्हें साहित्यकार बनना है न कि समाजसेवक! इसलिए साहित्यिक भाव से मुझसे सरोकार रखो, जिससे मूर्धन्य साहित्यकार तुम्हारे लेखन को व्याख्यायित कर अपनी मूर्धन्यता के साथ मुझे भी महिमामंडित कर सकें! क्यों क्या बात है, तुम खामोश क्यों हो गए?” मुझे हाँ-हूँ करते न देख मेरे सामाजिक सरोकार ने मुझे टोका।
धीर-गंभीर मन:स्थिति में मैंने कहना चाहा, “देखो, एक तो मुझे तुम्हारी बात समझ में नहीं आई, दूजे मेरे लिखे से कोई महिमामंडित हो, इस बात से मेरा कोई सरोकार नहीं, समझे?”
लेकिन वह, मतलब मेरे सामाजिक सरोकार ने, मुझे चिढ़ाने से बाज नहीं आया और कुटिल मुस्कान लिए बोला, “चलो मान लिया, तुम्हें अपने ही सरोकार से कोई सरोकार नहीं, लेकिन इसमें तुम्हारा नहीं तुम्हारे परिवेश और संस्कारों का दोष है। इस देश की माटी ही ऐसी है कि यहाँ लोग अपने नहीं दूसरे के सरोकार पर हाथ साफ करते फिरते है! और जो तुम ये कह रहे हो कि तुम्हें मेरी बात समझ में नहीं आई तो सुनो..
…वो क्या है कि! तुम सब समझते हो, नहीं तो तुम अपनी किताब का नाम “लिल्लीघोड़ी पर सवार कौवा” न रखते! भला किसी पुस्तक का यह भी कोई नाम हुआ!”
मैं समझ गया कि मेरा लेखकीय सरोकार लथेड़ने की मंशा से आज मुझे कोंचने का अवसर छोड़ना नहीं चाहता। फिर भी मैंने सहज भाव से उसे समझाने की कोशिश की, “देखो जी, हम जो लिखते हैं वही साहित्यिक हो जाता है, रही बात शीर्षक की, तो साहित्यिक कर्म में प्रकाशक का भी हाथ होता है, इसलिए उसका भी कहा मानना जरूरी है! अन्यथा अपनी किताब का कोई दूसरा सरोकारी नाम देता!”
“गुड..गुड..! तुम मुझसे सरोकार रखो, लेकिन वाया साहित्यिक-भाव से! अब देखना, तुम्हारी इस पुस्तक में लिल्लीघोड़ी पर सवार कौवे का मिलना भले ही असंभव हो लेकिन यह साहित्यिक टाइप का शीर्षक इस किताब का बिजनेस करवा ही देगी! यही मैं समझाना चाह रहा था कि लेखन भी इस शीर्षक जैसा ही होना चाहिए! जिसे पाठक नहीं साहित्यकार ही समझ पाएं! इसी में मुझ जैसे सरोकार और तुम जैसे लेखक की महत्ता है! इतनी छोटी बात तुम्हारा प्रकाशक समझ रहा है और तुम नहीं! यह घोर आश्चर्य का विषय है! लानत है तुम्हारे लेखन पर।”
बाप रे ! इसके साथ ही मेरे सरोकारी मन ने मेरे लेखक-मन को झिंझोड़कर रख दिया!! और मैंने लिल्लीघोड़ी पर कौवा की सवारी कराने की जैसे ठान भी लिया! उंगलियों में कलम फँसाए, अरे नही, इसे की-बोर्ड पर रखे हुए, साहित्यिक टाइप का भाव जगाने हेतु चिंतनरत हो गया।

*विनय कुमार तिवारी

जन्म 1967, ग्राम धौरहरा, मुंगरा बादशाहपुर, जौनपुर vinayktiwari.blogspot.com.