सामाजिक

विकास और आत्मनिर्भरता

विकास आत्मनिर्भरता से ही होता है। भिखारी बन कर नही होता। दुकानदार, नौकरी करने वाला, लघु उद्योग या बडा उद्योग, मजदूर सब आत्मनिर्भर ही तो हैं। केवल भिखारी नही हो पाते आत्मनिर्भर। सभी विकास और आत्मनिर्भरता एक दूसरे की पूरक हैं। किसान ने खेती की वह आत्मनिर्भर है मगर उसकी आत्मनिर्भरता प्रकृति, बीज, खाद दवा समय पर आवश्यक यन्त्रों जैसे आजकल जुताई के लिये ट्रैक्टर आदि और बाजार पर निर्भर है।
नौकरी वाला आत्मनिर्भर है मगर उसकी निर्भरता भी उसकी कम्पनी के विकास व कुशल प्रबन्धन पर निर्भर है। मजदूर भी आत्मनिर्भर है मगर वह भी सरकारी योजनाओं निजी विकास कार्यों व बाजार पर निर्भर है। विकास कभी गायब नही होता। प्रगति दर अलग हो सकती है।
हाँ नकारात्मक देखने कीआदत डाल तो तो हम तुलनात्मक कमी निकालते हैं। विकास एक गति है। बच्चे के जन्म से बुजुर्ग होकर मरने तक विकास होता है। जनसंख्या वृद्धि होने पर उसके लिये स्कूल अस्पताल खाना पीना रोजगार बढाना सडके वाहन संशाधन जुटाना भी विकास है। आप कितना कर सके यानि उसकी गति है। प्रत्येक वाहन 100 किमी प्रति घंटा नही चलता। सबकी अपनी क्षमता है। फिर भी परिवर्तन होता है। आप जंगली जीवन से बढकर वर्तमान भौतिक सुखों तक आ गये यह भी विकास है।
आलोचना कीजिये खूब कीजिये मगर ध्यान रहे कि कहीं निजी जीवन भी नकारात्मक आलोचनात्मक ही बनकर न रह जाये। जिस प्रकार विपक्ष का काम केवल आलोचना करना है, हर काम मे नकारात्मकता तलाशना है और कुछ भी अच्छा हो उस पर मौन साधना होता है परिणामतः वो फटे ढोल की तरह बजते रहते हैं और कोई उन पर ध्यान नही देता, ऐसे हालात से स्वयं को बचाना चाहिये।
गलत काम की आलोचना भी जरूरी सुझाव भी जरूरी है मगर केवल आलोचना के लिये आलोचना से बचना चाहिए। हमे उदारवादी बनकर खराब के मध्य जो अच्छा हो उसकी प्रशंसा भी करनी चाहिये।
यही मानवता है और यही राष्ट्रीय धर्म भी है।
— अ कीर्ति वर्द्धन