कविता

उड़ने दो मन को

उड़ने दो मन को,
अनंत आवरण में
समन्वित रूप में
अपना कुछ बनने दो,
विचारों के जग में
एकता हमारी हो,
अखंड भरत-भूमि में
अपना कुछ करने दो,

उड़ने दो मन को
उड़ने दो मन को ।

विश्व – गुरू थे हम
इतिहास यही बताता है,
ज्ञान – विज्ञान में हम
अव्वल दर्जे के थे
यहाँ के हर कोने में
दिव्य धारा थी
देश – विदेशी की प्यास बुझाने
झरने बहते थे,

उड़ने दो मन को
उड़ने दो मन को ।

स्वार्थ की ये ज़ंजीरें
निर्दय तोड़ते आओ
समता – ममता, बंधुता, भाईचारा
हर जगह फैलाते जाओ
रंग – बिरंगी इस फुलझड़ी में
सुंदर फूल बनो
अपनी महक इठलाते
आगे के कदम बढ़ाओ,

उड़ने दो मन को
उड़ने दो मन को ।

मनुष्य ही केंद्र है
विराट समाज में
मानवता फैलाते अपना
आगे के कदम दिखाओ
स्वेच्छा के पंख
फैलाओ अखंड़ता की ओर
जीवन के पन्नों का
ईजाद बनते जाओ,

उड़ने दो मन को
उड़ने दो मन को ।

पी. रवींद्रनाथ

ओहदा : पाठशाला सहायक (हिंदी), शैक्षिक योग्यताएँ : एम .ए .(हिंदी,अंग्रेजी)., एम.फिल (हिंदी), पी.एच.डी. शोधार्थी एस.वी.यूनिवर्सिटी तिरूपति। कार्यस्थान। : जिला परिषत् उन्नत पाठशाला, वेंकटराजु पल्ले, चिट्वेल मंडल कड़पा जिला ,आँ.प्र.516110 प्रकाशित कृतियाँ : वेदना के शूल कविता संग्रह। विभिन्न पत्रिकाओं में दस से अधिक आलेख । प्रवृत्ति : कविता ,कहानी लिखना, तेलुगु और हिंदी में । डॉ.सर्वेपल्लि राधाकृष्णन राष्ट्रीय उत्तम अध्यापक पुरस्कार प्राप्त एवं नेशनल एक्शलेन्सी अवार्ड। वेदना के शूल कविता संग्रह के लिए सूरजपाल साहित्य सम्मान।