लघुकथा

लघु कथा : ईमानदारी का संस्कार

एक गांव में हरिराम की साइकिल पंचर जोड़ने की दुकान थी। यह गांव की सबसे बड़ी दुकान थी। उसकी दुकान पर 10-15 साइकल सुधरने के लिए आती ही रहती थी, वह गांव का सबसे ईमानदार व्यति था। उसके परिवार में 2 लड़के व 3 लड़कियां थी। वह दिन भर कड़ी मेहनत कर अपने परिवार के भोजन का प्रबंध कर ही लेता था। अभी कुछ वर्ष ही हुए, गांव में पक्की सड़क बन गई थी, विकास की थोड़ी थोड़ी ही सही रोशनी गांव में चमकने लगी थी। परन्तु एका एक गांव में घटती साइकिलों ने उसके होश उड़ा दिए थे, परिवार सक्षम होने लगे थे, अब हर घर मे मोटर साइकिल दौड़ने लगी थी। वह दिन ब दिन और दरिद्र होता गया। उसने अन्य कोई काम सीखा भी नही था, अब तो दुकान पर गिनती की साइकिल रह गई थी, उसके इस संघर्ष को उसका बड़ा पुत्र राम बड़े ध्यान से देखता, कभी कभी प्रश्न भी पूछता। उसके प्रश्नों का उत्तर हरिराम के पास नही होता था। राम ने सोचा था जब मैं बड़ा बनूंगा तब सारे काम करूंगा जिससे मेरा परिवार परेशान न हो। एक दिन दमे से हरिराम की आकस्मिक मृत्यु हो गई। अब उसकी पत्नी और बच्चे भी गांव के अन्य लोगों की तरह शहर आ गए, वह छोटा मोटा मजदूरी का काम करने लगे। पिता का आश्रय हटने से बच्चे पढ़ लिख नही सके, किन्तु ईमानदारी का संस्कार उन्हें हरिराम ने विरासत में दिया था, जिंदगी ने उन्हें आगे बढ़ना सीखा दिया। धीरे से ही सही यह परिवार अब अपने पैरों पर आगे बढ़ने लगा था। बड़े लड़के राम की ईमानदारी और व्यवहार से प्रेरित होकर एक बैंक के अधिकारी ने उसे सुरक्षा गार्ड की नोकरी दी। परिवार के सभी सदस्य ठीक ठाक काम करने लगे थे। अब न तो परिवार में दरिद्रता थी, न ही चिंता। था तो केवल संतोष व स्वाभिमान। यकीन मानिए हरिराम जैसे छोटे मजदूर ही देश की असली दौलत है, जो अपने बच्चों को ईमानदारी का संस्कार देते है, उन्ही के गुणों व सज्जनता के कारण देश स्वाभिमान से आगे बढ़ रहा है।
— मंगलेश सोनी

*मंगलेश सोनी

युवा लेखक व स्वतंत्र टिप्पणीकार मनावर जिला धार, मध्यप्रदेश