कविता

अहंकारों की अनंत आँधी में,

अहंकारों की अनंत आँधी में,
विचरती विकारों की व्याधि में;
उड़े कितने ही व्यथाएँ पाते,
स्थिति अपनी कहाँ लख पाते !

वृद्ध होकर भी युद्ध रत रहते,
यों ही बिन बात के विकल होते;
जुड़े रिश्तों से वृथा ही रहते,
यथायथ रहके विश्व ना रमते !

तटस्थ हो के जब कभी लखते,
तिनके तिनके का मर्म तक लेते;
धर्म की विरासत समझ लेते,
चर्म की हक़ीक़त बूझ पाते !

कहाँ फिर योजना किसी फँसते,
उनकी आयोजना को फुर करते;
सपने अपने का स्वयँवर करते,
उनके अम्बर में दिगम्बर रचते !

भूल जो जाते अपनी गरिमाएँ,
समझ के चलते उनकी महिमाएँ;
चरण उनके में ‘मधु’ विचराते,
प्राण उनके में उतर वे आते !

✍🏻 गोपाल बघेल ‘मधु’