लघुकथा

शराब बंदी

सुखिया रोज की तरह शराब के नशे में झूमते हुए अपनी झुग्गी के समीप पहुँचा । व्यग्रता से उसका इंतजार कर रही ललिया ने उसे सहारा दिया और झुग्गी में नीचे बिछे बिछौने पर उसे सुला दिया । कमीज की जेब टटोलकर हाथ में आए सौ सौ के दो नोट अपनी अंटी में खोंसते हुए वह बड़बड़ाई ,” ये मुई शराबबंदी तो महँगाई की भी अम्मा निकली । शराबबंदी से पहले यही मरद बीस रुपये की शराब पीकर टुन्न हो जाता था लेकिन आज उतनी ही शराब के लिए दो सौ रुपये खर्च कर आता है । शराब बंदी में शराब महँगी ही हुई है बस , काश ! ये बंद भी हुई होती ! “

*राजकुमार कांदु

मुंबई के नजदीक मेरी रिहाइश । लेखन मेरे अंतर्मन की फरमाइश ।