लघुकथा

प्रतिभा की जीत

लोग बताते हैं कि जब निशा पैदा हुई थी, तब परिवार का कोई भी सदस्य खुश नहीं हुआ। शायद लड़के की चाहत पूरी नहीं होने के कारण लोग निराश थे। निशा जब पांच साल की हुई तब उसका नन्हा सा प्यारा भाई पैदा हुआ। घर में सभी बहुत खुश थे। चंद दिनों बाद ही निशा को अपनी उपेक्षा का अहसास हुआ। उसके पापा भी दफ्तर से लौटने के बाद भाई को ही प्यार करते। प्रतिकूल परिस्थितियों में भी निशा मन लगाकर पढ़ती रही।
बीए की परीक्षा में पूरे विश्वविद्यालय में वह प्रथम स्थान पर रही। दादाजी ने निशा को बधाई तो दी लेकिन उसके पापा को बुला कर कहा- “बेटा, पढ़ाई-लिखाई हो गई, अब इसके हाथ पीले करने की सोचो।”
निशा अभी शादी नहीं करना चाहती थी। वह आगे पढ़ना चाहती थी। लेकिन घर के लोग उसे लड़की होने का अहसास कराते रहे। उस पर पाबंदियां गहरी होने लगी। निशा सब कुछ देख-समझ रही थी, पर वह कुंठाग्रस्त नहीं हुई। परिवार और समाज की रूढ़िवादी सोच के आगे वह हार नहीं मानना चाहती थी। अपने लक्ष्य के प्रति वह पूरी तरह समर्पित हो गई।
सरकार से प्राप्त प्रोत्साहन राशि से निशा को आगे पढ़ाई जारी रखने में काफी मदद मिली। आज उसकी साधना पूरी हुई और यूपीएससी की सिविल सेवा परीक्षा में उसका चयन होना परिवार को गौरवान्वित कर रहा था। बेटी की प्रतिभा ने संकीर्णताओं की बेड़ियां तोड़ दी।
— विनोद प्रसाद

विनोद प्रसाद

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