कविता

बहते आँसू, बिकती खुशियां

ये कैसा संकट है
ये कैसी महामारी है
अमीर हो या गरीब
छोटा हो या बड़ा
न कोई भेदभाव
हर ओर लाचारी,
बिखरती उम्मीदें
बेबसी के आँसू
असहाय, अपाहिज सा
हर मानव जैसे निढाल है,
चारों ओर घने काले
डरावने बादल
जैसे उम्मीदों को भी
निगल जाने को तैयार हैं।
ऊपर से एक एक साँस
चुनौती दे रही है,
इंसान की बेबसी,लाचारी
आँसुओं का तो
कोई मोल ही नहीं रहा,
इंसानी साँसों का जैसे
बाजार बन गया।
साम,दाम, दंड, भेद
बस जैसे भी हो ले लीजिए,
खुलेआम लग रही
साँसो की बोलियां,
कूवत है तो आँसू पीजिए
साँसें खरीद कर जी लीजिए।

*सुधीर श्रीवास्तव

शिवनगर, इमिलिया गुरूदयाल, बड़गाँव, गोण्डा, उ.प्र.,271002 व्हाट्सएप मो.-8115285921