कविता

प्रवाह

न जाने वाले को जाने से रोक सकते हैं
न आने वाले को आने से……
बस एक प्रवाह चलता है,
पीछे से आगे;
या आगे से पीछे भी?
इसी के साथ चलती हैं सांसें
जिसके साथ साथ चलते हैं हम
आने वाला नया है
जो चला गया वो पुराना
जो बीता वही तो है अपना
आने वाला न जाने किसका हो
कुछ रुकता नहीं न जाने वाला
और न ही आने वाला
फिर क्यों रुक जाते हैं हम?
किसके लिए?
हम भी तो मात्र प्रवाह हैं…
क्यों न हम भी बहते चलें….
और बस यही कहते चलें कि
रुकना नहीं,रास्ते ही ज़िंदगी हैं
मंजिल तो धोखा है, शायद
मृग मरीचिका सी…..
या वो समुद्र सा ,जहाँ
पहुँचने के बाद नदियां
अक्सर खुद को खो दिया करती हैं…

लवी मिश्रा

कोषाधिकारी, लखनऊ,उत्तर प्रदेश गृह जनपद बाराबंकी उत्तर प्रदेश