यात्रा वृत्तान्त

मेरी जापान यात्रा – 11

क्योटो  एक बहुत ऐतिहासिक नगर है।  यह जापान की राजधानी रहा है।  इस कारण यहां    बौद्ध धर्म और शिंटो धर्म दोनों ही के मठ  और मंदिर बहुतायत से मिले।
         सुबह पहुंचते ही पहले सिटी टूर बुक करवाया।  ओसाका वाली गलती अब कभी भी दोहरानी नहीं थी।  चलना तो अच्छा है सेहत के लिए मगर समय का हिसाब नई जगह में रखना कठिन है।  उतनी देर में हम और कुछ भी देख सकते थे।  नाश्ता आदि खाकर हमें ठीक नौ बजे बाहर पोर्टिको से कोच लेनी थी।
         ओसाका वाली बांग्ला देशी स्त्री का आत्म विशवास और रुआब मुझे आइना दिखा गया था।  मैं भारतीय हूँ फिर मुझे साड़ी पहनने में आलस क्यों ? इसलिए मैंने अपनी ले जाई एकमात्र साड़ी पहन ली।  वेश भूषा के अनुसार बिंदी चूड़ी आदि का भी ध्यान रखा।  कमरे से बाहर आते ही मुझको अनेकों नज़रों के उठने का भान हुआ।  साथ ही कई हाथ बार बार नमस्ते से अभिवादन कर रहे थे।  मुझे अपनी मौलिक छवि पर बहुत गर्व हुआ।  सबका अभिवादन स्वीकार करते हम नाश्ते की मेज़ पर जा बैठे।
             क्योटो बहुत घनी आबादी का शहर है।  पूरे जापान में बिजली की सप्लाई धरती के ऊपर हुई थी।  अधिक भूचालों वाले इस देश में यही शायद अधिक सुरक्षित व्यवस्था है।  हमारी निर्देशिका जापानी उच्चारण को यथासंभव ग्राह्य बनाती हुई अपनी हास्य मिश्रित कमेंट्री दे रही थी।
         ”  जापान में हम टूरिस्ट बसों को पहले निकाल लेते हैं क्योंकि सड़कें तंग हैं। अतः स्कूल की बसों के शुरू होने से पहले हमें रास्ता साफ़ और ट्रफिक कम रखना जरूरी है।  जापान में स्कूल दो या तीन शिफ्टों में लगाए जाते हैं।  यहां शिक्षा में प्रतिस्पर्धा  आदि बहुत है।  जापानी स्वभाव से बहुत धर्मभीरु होते हैं।  किसी को दुःख देना बुरा माना  जाता है।सार्वजानिक स्थान में चुप रहना हमें बचपन से ही सिखाया जाता है।  पुरुषों का स्थान समाज में अधिक ऊंचा है बजाय स्त्रियों के।  क्योंकि वह देश के रक्षक होते हैं।  जापानी अपनी देशभक्ति के लिए जगत प्रसिद्ध  हैं।  एक बार हमारे देश का एक सिपाही द्वितीय  विश्व युद्ध   में हेलीकॉप्टर के द्वारा नीचे उतार दिया गया।  वह अपने पैराशूट से जंगलों में उतरा और कई दिन तक बेहोश रहा।  होश आने पर वह किसी तरह अपनी दिशा तय करता हुआ शहर तक आ पहुंचा। मगर उसे पता चला कि जापान अमेरिका से हार गया था और उसपर बम फेंका गया था।  उसको अपने देश की हार पर इतनी आत्मग्लानि हुई कि वह वापिस जंगलों में चला गया और सोंचा कि वह अब कभी अपने देशवासियों को मुंह नहीं दिखायेगा।  बहरहाल इसके करीब तीस वर्ष के बाद उसको किसी ने जंगलों में जीर्णावस्था में भटकते देख लिया।  तुरंत पुलिस ने उसको पकड़ लिया और उससे पूछताछ की।  तब उसकी कहानी सबको पता चली और उसको राष्ट्रीय  पुरस्कार और सामान दिए गए। पर यह तो परियों की कथा जैसी लगती है।  क्योंकि आधुनिक जापानी युवा केवल एक लॉयल्टी जानता है और वह है अपनी गर्ल फ्रेंड के प्रति।  किसी युग में प्रत्येक जापानी पुरुष को कोई न कोई हथियार चलाना सिखाया जाता था मगर अब उसकी जगह गिटार ने ले ली है।  यह सब अमेरिका का प्रभाव है।  दुःख की बात है कि आज के अभिभावक इंग्लैंड और अमेरिका की शिक्षा पद्धति का अनुसरण करना पसंद करते हैं।  ”
              उसकी बातें मुझे अंदर से निचोड़ रही थीं। यही विरोधाभास ,आधुनिकता के नाम पर भारत में भी अन्धेवार पनप रहा है। माँ बाप क्यों नहीं इसको आत्मसात कर पाते ? एक छत के नीचे दो संस्कृतियां क्यों ?
             हमारा पहला पड़ाव एक बौद्ध मंदिर है।  यह तोजी मंदिर कहलाता है और शहर के बीच में  ही है।  आस पास काफी बाजार आदि हैं।  यहां केवल दस मिनट रुकना है। अतः  मंदिर  देखकर सब जल्दी से बस में आ गए।
             बस सारे शहर के प्रमुख स्मृति चिन्हों से गुजरती गयी और हमारी निर्देशिका उनके बारे में समझाती गयी।  अनेक महत्वपूर्ण इमारतें ,उनसे जुड़े खूबसूरत उद्यान ,सड़कें और फ्लाईओवर ,उनकी अनोखी सज्जा। सबकुछ मनमोहक था।
            बांग्लादेशी महिला नेता की तरह क्या हमारे नेता भी ऐसी जगहों पर नहीं आते हैं ? तो फिर उनके मन में अपने राज्य या शहर को  स्वच्छ ,सुन्दर ,और दर्शनीय बनाने का विचार क्यों नहीं आता ? क्यों मोटे ,सेठों को शहर निर्माण के ठेके दे दिए जाते हैं जबकि पी डब्ल्यू डी के पास कई  साल कोई योजना ही  नहीं थी।लोग दफ्तर जाते थे पर काम नहीं था।  कारण ? नेताओं की बढ़ती स्पर्द्धा के कारण कमांडो की संख्या बढ़ा दी गयी थी उनकी व्यक्तिगत सुरक्षा के लिए।   हमारा देश धन ,बुद्धि आदि में कम  नहीं है। हमारा देश कॉमन सेंस से एकदम पैदल है। और कॉमन सेंस को दीमक लग चुकी है लालच की।
            आखिर बस रुकती है। निर्देशिका कहती है कि हम एक राजमहल देखने आये हैं शहर से काफी दूर।
            यह महल ” बुलबुल महल ”यानि  ”’ नाइटिंगेल पैलेस ” के नाम से प्रसिद्ध है।  सबको जूते उतार कर प्रवेश करना था।  महल लकड़ी के खम्भों पर ज़मीन से पांच -छह फुट ऊपर बना हुआ है।  इसका नाम निजो कैसल है।   इसकी विशेषता इसका फर्श है।  अक्सर हमारे घरों के दरवाज़े या लकड़ी की खिड़कियाँ चरमराती आवाज़ करती हैं।  बरसातों के मौसम में चारपाइयाँ अकड़ जाती थीं और चरमराती थीं।  जापानी काष्ठकारों ने इस विधा का उपयोंग  महत्वपूर्ण इमारतों में सुरक्षा की दृष्टि से किया है।  ऐसे चरमराते फर्श ,आगंतुकों के आने की घोषणा कर देते थे और राजा की सेना या मंदिर के पुजारी सतर्क हो जाते थे।  कलात्मकता इसमें है कि मुख्य फर्श के नीचे जो लकड़ी के जोड़ बैठाये गए हैं उनमे इस तरह से ढिलाई छोड़ दी गयी है कि उनकी आवाज़ विभिन्न सुरों में निकलती है और वातावरण चिड़ियों के गायन के स्वरों से गूँज उठता है।  ऐसा लगता है कि बुलबुलें चहक रही हैं। इसलिए इसको नाइटिंगेल पैलेस कहा जाता है। जापान में उगईसू नमक चिड़िया गानेवाली चिड़िया है। पर अंग्रेजी में उसे नाइटिंगेल  नाम दे दिया गया है।
          यह पूरा लकड़ी का बना है।   यह सन १६०१ में बना था।  निर्देशिका हमे प्रत्येक कमरे में ले गयी और दिखाती गयी कि राजा रानियां कैसे जीवन यापन करते थे।  इस महल की रसोई उसी बिल्डिंग में नहीं थी।  अतः भोजन थोड़ी दूर से महल में लाया जाता था।  उसके बाद राजा की पटरानी खूब सज धज कर भोजन कक्ष को सजवाती थी जिसके लिए विशेष सेवक और सेविकाएं होते थे।   अन्य किसी को अंदर जाना अनुमत नहीं था।  मुख्य रसोइया जब भोजन का थाल चौंकी पर रखता था तो पहले उसको सभी व्यंजन स्वयं चखने होते थे।  तत्पश्चात वह  झुक कर विदा लेता था और उल्टा चलकर बाहर जाता था ताकि राजा को पीठ न दिखाए।  फिर महारानी झुक झुक कर सलाम करती थी और राजा के ठीक सामने बैठकर भोजन चखने की क्रिया दोहराती थी।  सब ठीक होने पर राजा वह भोजन ग्रहण करता था। निर्देशिका व्यंग से कहती है ,” इस प्रकार जापान का राजा कभी भी गर्मागर्म खाना नहीं खाता था। बर्फबारी के समय भी नहीं।  दरअसल रसोईघर से भोजन कक्ष तक लाते- लाते  खाना जम जाता होगा। या उसमे बर्फ गिरी  हो सकती  है।”
        पूरी बस में ठहाका लगा।  हम आगे चले। खाने का समय है।  बस एक विशेष संस्थान में हमें ले आयी।  यहां खरीददारी कर सकते हैं।  बच्चों के लिए स्मृति चिन्ह आदि या चाभी का गुच्छा जैसा कुछ।  हमारे आगे दर्शकों की क़तार बहुत लम्बी है।  हमारे पास पंद्रह मिनट का समय है। हमें अपनी पहली पोती के लिए एक कीमोनो चाहिए।  सबसे छोटा साइज तीन साल के बच्चे का मिला।  वही ले लिया हालाँकि वह लम्बा साटन का बो आदि से सजा हुआ नहीं था। मगर ज़माना बदल गया था।  तभी कतार में हमारी बारी आ गयी।  एक बड़े भोजन कक्ष में सेल्फ सर्विस करके आगे बढ़ना था।  सभी सामान शाकाहारी था।  यह सेवा समिति बौद्ध मठ की देन थी।  हमारा भोजन फ्री था।  करीब बीस प्रकार के व्यंजन रखे थे जिसमे करी और राइस भी था।  सो हम दोनों ने वही लिया।  जैसा भी था ,स्वादिष्ट बना था।  भोजन के बाद आइस क्रीम ले ली क्योंकि हमें जापानी मीठा अपरिचित लगा।  पंद्रह मिनट तरो ताज़ा होने में लगे।  .निर्देशिका विदा कहकर चली गयी।  हम एक अन्य बस में बैठे और एक प्रौढ़ रोबीली छवि वाली स्त्री ने हमारा स्वागत किया।  मैं हमेशा सबसे पीछे रह जाती थी धीरे चलने के कारण।  परन्तु बस को पीछे से भरा जा रहा था सो सबसे आगे की सीटें हमें मिलीं।  निर्देशिका बिलकुल हमारे साथ वाली सीट पर बैठी।  मुझे साड़ी में देखकर वह  मुस्कुराई। उसने कहा कि वह हमको जापान का सारनाथ दिखाने ले जा रही है जिसे ”नारा”  (Nara) कहते हैं।

*कादम्बरी मेहरा

नाम :-- कादम्बरी मेहरा जन्मस्थान :-- दिल्ली शिक्षा :-- एम् . ए . अंग्रेजी साहित्य १९६५ , पी जी सी ई लन्दन , स्नातक गणित लन्दन भाषाज्ञान :-- हिंदी , अंग्रेजी एवं पंजाबी बोली कार्यक्षेत्र ;-- अध्यापन मुख्य धारा , सेकेंडरी एवं प्रारम्भिक , ३० वर्ष , लन्दन कृतियाँ :-- कुछ जग की ( कहानी संग्रह ) २००२ स्टार प्रकाशन .हिंद पॉकेट बुक्स , दरियागंज , नई दिल्ली पथ के फूल ( कहानी संग्रह ) २००९ सामायिक प्रकाशन , जठ्वाडा , दरियागंज , नई दिल्ली ( सम्प्रति म ० सायाजी विश्वविद्यालय द्वारा हिंदी एम् . ए . के पाठ्यक्रम में निर्धारित ) रंगों के उस पार ( कहानी संग्रह ) २०१० मनसा प्रकाशन , गोमती नगर , लखनऊ सम्मान :-- एक्सेल्नेट , कानपूर द्वारा सम्मानित २००५ भारतेंदु हरिश्चंद्र सम्मान हिंदी संस्थान लखनऊ २००९ पद्मानंद साहित्य सम्मान ,२०१० , कथा यूं के , लन्दन अखिल भारत वैचारिक क्रान्ति मंच सम्मान २०११ लखनऊ संपर्क :-- ३५ द. एवेन्यू , चीम , सरे , यूं . के . एस एम् २ ७ क्यू ए मैं बचपन से ही लेखन में अच्छी थी। एक कहानी '' आज ''नामक अखबार बनारस से छपी थी। परन्तु उसे कोई सराहना घरवालों से नहीं मिली। पढ़ाई पर जोर देने के लिए कहा गया। अध्यापिकाओं के कहने पर स्कूल की वार्षिक पत्रिकाओं से आगे नहीं बढ़ पाई। आगे का जीवन शुद्ध भारतीय गृहणी का चरित्र निभाते बीता। लंदन आने पर अध्यापन की नौकरी की। अवकाश ग्रहण करने के बाद कलम से दोस्ती कर ली। जीवन की सभी बटोर समेट ,खट्टे मीठे अनुभव ,अध्ययन ,रुचियाँ आदि कलम के कन्धों पर डालकर मैंने अपनी दिशा पकड़ ली। संसार में रहते हुए भी मैं एक यायावर से अधिक कुछ नहीं। लेखन मेरा समय बिताने का आधार है। कोई भी प्रबुद्ध श्रोता मिल जाए तो मुझे लेखन के माध्यम से अपनी बात सुनाना अच्छा लगता है। मेरी चार किताबें छपने का इन्तजार कर रही हैं। ई मेल kadamehra@gmail.com