ब्लॉग/परिचर्चा

पत्थर का खून

‘काश, हम में भी कोई रक्त संचार करता’ बाप-दादाओं की विरासत की निशानी एक हवेली के टूटते पत्थरों में से एक पत्थर ने बहुत ही मर्मस्पर्शी शब्दों में साथी पत्थरों से कहा।

‘हां भाई, हमें चोट पहुंचाने वाले मनुष्य को जब स्वयं चोट लगती है तो उसके शरीर से रक्त का प्रवाह होने लगता है, मगर हमारे शरीरों के साथ ऐसा नहीं होता’ एक पत्थर ने कहा।

‘अगर ऐसा होता तो ये हवेलियां बनते-बनते रक्त-रंजित हो उठतीं। हमें दी जाने वाली हर चोट पर रक्त बहता। भगवान् ने बहुत सोच समझ कर इस सृष्टि की रचना की है’ एक पत्थर ने कहा।

‘काश मनुष्य हमारे दर्द को समझ पाता’ चोट सहते हुए एक अन्य पत्थर ने कहा।

‘मनुष्य तो अपने दर्द को चीख-चीख कर सुना सकता है, चोट लगने पर बहते रक्त को दिखा सकता है। हम भी यदि ऐसा कर पाते तो मनुष्य हमारे दर्द को समझता’ कुछ पत्थरों ने मिलकर कहा।

‘पर इस हवेली को तोड़ा क्यों जा रहा है? हमने तो इसे बहुत मजबूती से संभाला हुआ था’ एक पत्थर ने प्रश्न करते हुए कहा।

‘ठीक कहते हो भाई, न जाने कितने बरसों से हम यहां आपस में प्रेम से रह रहे थे और हमारे आंचल में इस परिवार की न जाने कितनी पीढ़ियां पलीं। मगर न जाने किस अजगर ने डस लिया इस परिवार के आपसी भाईचारे को जो विषाक्त हो गया और आपस में जुड़े परिवार को इस तरह अलग होना पड़ा जिस प्रकार मनुष्य के शरीर के किसी अंग में विष का अत्यधिक प्रभाव होने पर उसे काट कर अलग कर दिया जाता है’ एक अन्य पत्थर ने कहा।

‘मैं इतना निष्ठुर नहीं हूं कि मैं संबंधों को ही विषाक्त कर दूं।’ टूटती हवेली के एक ओर बसे एक विशाल वृक्ष पर रह रहे अजगर ने कहा।

‘क्षमा करें अजगर भाई, हमारा वह मतलब नहीं था’ कुछ पत्थरों ने क्षमा मांगते हुए कहा।

‘कोई बात नहीं। मगर मुझे तुम्हारी बातें सुनकर तुमसे हमदर्दी हो गई है। कहो तो हथौड़ों से तुम पर वार कर रहे मनुष्यों को डस लूं और तुम्हें चोटों से निजात दिलाऊँ’ अजगर ने फन चौड़ा करते हुए कहा।

‘किस-किस को डसोगे भाई अजगर? कहीं तुम्हें हथौड़े की चोट लग गई तो तुम्हारे प्राण निकल जाएंगे’ एक पत्थर ने कहा।

‘तुम्हें चोटों से बचाना एक पुण्य कार्य होगा और इस पुण्य कार्य को करते हुए यदि मेरी जान भी चली जाए तो परवाह नहीं। मैं शहीद कहलाऊँगा’ अजगर ने निवेदन किया।

‘नहीं अजगर भाई, हम ऐसा नहीं चाहते। हम जब तक इस हवेली से जुड़े रहे हमें बहुत प्रेम मिला और हमने बहुत प्रेम भी दिया। बदली सोच वाली पीढ़ी को सुधारने का उपाय उसे डसना नहीं है। उसे समय ही सिखाएगा’ एक पत्थर ने कहा।

‘मगर मुझे एक बात समझ नहीं आती। जिन हथौड़ों से वार कर रहे हैं वे लोहे और लकड़ी से बने हैं। और लोहे ने उस लकड़ी के पूर्वजों का नाश किया था। अब यह आपसी संबंध कैसा?’ अजगर ने पूछा।

‘अजगर भाई, लोहा कभी लकड़ी की दुश्मन नहीं हुआ। लोहे और लकड़ी के संबंधों में यह राजनीतिक चाल भी मनुष्य ने चली है। दोनों को बरगला कर अपनों पर ही वार करवा रहा है’ पत्थर बोला।

‘मगर मनुष्य इसे विकास का क्रम कहता है’ अजगर ने कहा।

‘यह कैसा क्रम है जो संबंधों को बिगाड़ता है!’ एक पत्थर ने कहा।

‘मुझे याद है जब हवेली में रौनक हुआ करती थी तो बड़े बाबू जी एक गीत को बार-बार सुना करते ‘नफरत करने वालों के सीने में प्यार भर दूं, अरे मैं वो परवाना हूं पत्थर को मोम कर दूं’। ये पंक्तियां सुनकर बाबू जी की आंखें छलछला आतीं’ एक पत्थर ने याद करते हुए कहा।

‘पत्थर के सनम, तुझे हमने मुहब्बत का खुदा जाना’ एक गीत की पंक्तियां भी बाबू जी गुनगुनाया करते’ एक अन्य पत्थर ने याद दिलाया।

‘चाहे हवेली हम पत्थरों से जुड़ कर बनी हो, मगर इसमें हमने बहुत-सी किलकारियां गूंजती देखी भी हैं और सुनी भी हैं’ एक पत्थर ने कहा।

‘बिल्कुल वैसे जैसे पत्थर के पहाड़ों के बीच कोई जोर से बोलता है तो आवाजें टकरा कर गूंजती हुई वापस आती हैं’ एक पत्थर ने समझाया।

‘हम अटल हैं। हमने खुद कभी किसी पर वार नहीं किया। हमें कुछ इंसानों ने देवी-देवताओं का रूप भी दिया तो कुछ मूर्तिकारों ने हमें विभिन्न रूप दिये। हम पिरामिड भी बने तो हम चित्तौड़ का किला भी बने। हमने अपनों को हमेशा मजबूत आधार दिया। हमारे जैसा गुण अन्य किसी में नहीं मिलेगा’ उदास होते हुए एक पत्थर ने कहा।

‘और हमने खुद कभी किसी को नुकसान नहीं पहुंचाया’ एक पत्थर बोला।

‘हां, यह बात तो बिल्कुल सत्य है’ अनेक पत्थरों ने एक स्वर में कहा।

‘पर आज मैं बहुत उदास हूं’ एक उदास पत्थर बोला।

‘उदास क्यों होते हो भाई? वो दिन याद करो जब छोटे बच्चे अपनी शक्ति के अनुसार उठा कर हमें झीलों और तालाबों में फेंकते और जल-तरंगों के संगीत को सुनकर खुश होते। न हमने उन्हें कभी कुछ कहा और न ही झील या तालाबों के जल ने उनसे कभी शिकायत की’ कुछ पत्थरों ने कहा।

‘मगर भटके हुए युवा हमारे देश के सैनिकों पर जब पत्थर बरसाते हैं तो हम बेबस होकर देखते रहते हैं। काश हम उन्हें रोक पाते’ एक पत्थर ने अपनी व्यथा बताई।

‘जब कभी कोई चट्टान खिसकती है या पहाड़ों से हम पत्थरों के टुकड़े टूटकर किसी को घायल करते हैं या मार्ग अवरुद्ध करते हैं तो हम आरोपों के घेरे में आ जाते हैं। यह गलत है। इसका जिम्मेदार स्वयं मनुष्य है जो प्रकृति से खिलवाड़ कर रहा है। अपने स्वार्थ और लालच के चलते पेड़ों को काटता जा रहा है। मिट्टी खिसक जाती है या भू-स्खलन हो जाता है। भूमिगत आधार कमजोर पड़ जाते हैं और ऐसी घटनाओं का जन्म होता है’ एक पत्थर ने समझाने का प्रयास किया।

‘हां यह बात तो ठीक है। जब मनुष्य मुझे जड़ से उखाड़ता है या काटता है तो इससे न केवल मुझे पीड़ा होती है बल्कि मेरी डालों पर बसे उन परिन्दों के घर भी उजड़ जाते हैं। मैं तो कहा करता हूं कि ओ चिड़िया, तुम बोलो बारम्बार, गांव में, घर में, घट में, वन में, पत्थर हो चुके मनुष्य के मन में जिससे मनुष्य के मन में संवेदना जागे’ बड़े पीपल के वृक्ष ने कहा।

‘दादा, आपने बहुत अच्छी बात कही है। मैं बताता हूं कि हमारे पास भी कोई संत पुरुष आया था। उसने हमें देखा, हमें सहलाया, बहुत स्नेह दिया और साथ ही कहा कि मनुष्य बनो। हमने उस संत पुरुष को प्रणाम करते हुए उत्तर दिया कि हम नहीं हो पाये उतने कठोर अभी। यह सुनकर संत की आंखों से आंसू निकल पड़े और वह हम पर स्नेह से हाथ फेरता हुआ चला गया’ एक पत्थर ने किस्सा बयान करते हुए कहा।

तभी आकाश में जोर से बिजली कड़की और पीपल पर आ गिरी। हरा-भरा पीपल का पेड़ बिजली के प्रभाव से काला पड़ने लगा। यह देखकर पत्थरों को बहुत दुःख हुआ और वे विलाप करने लगे।

‘अब तुम प्राणहीन हो जाओगे। हमने बरसों से तुम्हें इस आंगन में हरियाली बांटते हुए देखा है। हमें बहुत दुःख हो रहा है। काश यह बिजली तुम पर न गिर के हम पर गिर जाती। हाय, ऐसा क्यों न हुआ। अब तुम पर बसन्त नहीं आएगा। एक दिन लकड़हारा तुम्हें काट कर बेच देगा। फिर बढ़ई तुम्हें काटेगा और बैलगाड़ी के पहिए में बदल देगा। दुःख जब बिजली की भांति गिरता है तब सब कुछ राख कर देता है’ पत्थरों ने विलाप किया।

‘मैं कुछ देर में चला जाऊँगा। मेरा नया जन्म होगा। किस रूप में होगा यह तो भगवान् ही जानता है। मगर मैं चाहूँगा कि मैं फिर से वृक्ष के रूप में जन्म लूं। हमारे तुम्हारे सपनों के जंगल में रंगीन चिड़ियाएं लौट कर आएं। फिर से वसन्त ऋतु आए’ अंतिम साँसें  गिनते हुए पीपल के वृक्ष ने कहा।

‘हमारे भीष्म पितामह दादा, हमारे लिए कोई संदेश देते जाओ’ रुदन करते पत्थरों ने कहा।

‘तुम्हारी ऐसी इच्छा है तो सुनो। मैं चाहता हूं कि तुम रिश्तों की दरारें भरते रहना अन्यथा भविष्य में वो खंडहर हो जाएंगे’ कराहते हुए पीपल ने कहा और पत्थर खामोश होकर पीपल के साथ बैठे रहे।

सुदर्शन खन्ना

वर्ष 1956 के जून माह में इन्दौर; मध्य प्रदेश में मेरा जन्म हुआ । पाकिस्तान से विस्थापित मेरे स्वर्गवासी पिता श्री कृष्ण कुमार जी खन्ना सरकारी सेवा में कार्यरत थे । मेरी माँ श्रीमती राज रानी खन्ना आज लगभग 82 वर्ष की हैं । मेरे जन्म के बाद पिताजी ने सेवा निवृत्ति लेकर अपने अनुभव पर आधरित निर्णय लेकर ‘मुद्र कला मन्दिर’ संस्थान की स्थापना की जहाँ विद्यार्थियों को हिन्दी-अंग्रेज़ी में टंकण व शाॅर्टहॅण्ड की कला सिखाई जाने लगी । 1962 में दिल्ली स्थानांतरित होने पर मैंने दिल्ली विश्वविद्यालय से वाणिज्य स्नातक की उपाधि प्राप्त की तथा पिताजी के साथ कार्य में जुड़ गया । कार्य की प्रकृति के कारण अनगिनत विद्वतजनों के सान्निध्य में बहुत कुछ सीखने को मिला । पिताजी ने कार्य में पारंगत होने के लिए कड़ाई से सिखाया जिसके लिए मैं आज भी नत-मस्तक हूँ । विद्वानों की पिताजी के साथ चर्चा होने से वैसी ही विचारधारा बनी । नवभारत टाइम्स में अनेक प्रबुद्धजनों के ब्लाॅग्स पढ़ता हूँ जिनसे प्रेरित होकर मैंने भी ‘सुदर्शन नवयुग’ नामक ब्लाॅग आरंभ कर कुछ लिखने का विचार बनाया है । आशा करता हूँ मेरे सीमित शैक्षिक ज्ञान से अभिप्रेरित रचनाएँ 'जय विजय 'के सम्माननीय लेखकों व पाठकों को पसन्द आयेंगी । Mobile No.9811332632 (Delhi) Email: mudrakala@gmail.com

One thought on “पत्थर का खून

  • *लीला तिवानी

    सुदर्शन भाई, क्या अद्भुत शीर्षक है “पत्थर का खून”! शीर्षक से लगता है पत्थर का खून हो गया, पर यहां तो पत्थरों की व्यथा है कि “‘काश, हम में भी कोई रक्त संचार करता’.” खून की बात करते-करते अजगर, बड़े पीपल के वृक्ष और भी न जाने किस-किस से हमदर्दी कहलवा दी. यह हमदर्दी एक तरफा नहीं है. एक तरफा तो प्यार भी नहीं टिकता, भले ही वेलेंटाइन डे हो या वेलेंटाइन सप्ताह! यहां हमदर्दी की आग दोनों तरफ लगी हुई है, वही हमदर्दी जिसके अभाव में मनुष्य पत्थर बन गया है और राजनीति रसहीन या कि कहिए रक्तहीन हो गई है. पत्थर हो या पीपल का वृक्ष, अंत में परमेश्वर की दी हुई नेमत को नमन करते हुए स्वयं में संतुष्ट रहने का संकल्प लेते हैं. और क्या-क्या कहें, आपकी रचना पढ़कर तो हम निःशब्द हो जाते हैं! फिर भी कोटिशः बधाइयां और शुभकामनाएं तो कह ही सकते हैं! स्वीकार कीजिए.

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