कहानी

पलायन

साथियों, नमस्कार ! रोजमर्रा के जीवन में घटित छोटी छोटी घटनाएँ भी इंसानी जिंदगियों को प्रभावित करती हैं लेकिन हमारे अंदर यह विवेक होना चाहिए कि हम किससे प्रभावित हों और किससे न प्रभावित हों। राजनीति भी एक ऐसा ही विषय जिससे प्रभावित तो सभी होते हैं लेकिन मेरा मानना है कि हमें इससे बिल्कुल भी प्रभावित नहीं होना चाहिए व अपना कार्य पूरी लगन व ईमानदारी से करते रहना चाहिए, सत्ता चाहे किसी की हो। सरकारें आती रहेंगी, जाती रहेंगी लेकिन इसकी वजह से आपसी भाईचारा व सौहार्द्र में कोई कमी न आए इसका पूरा ध्यान रखना भी हमारी ही जिम्मेदारी है और यह हम कर सकते हैं सभी के विचारों का सम्मान करके। राजनीतिक पूर्वाग्रहों के चलते कई नजदीकी रिश्तों में खटास का अनुभव हम सबने अवश्य किया होगा। अभी ताजा मामला है उत्तरप्रदेश सरकार में मंत्री रह चुके पति पत्नी के संबंधों में आई दरार की खबरें। बात तलाक तक पहुँच गई है। लेकिन अंतस को झकझोरती हैं निराशाजनक परिस्थितियों का शिकार बने कुछ लोगों द्वारा आत्महत्या किए जाने की खबरें देख सुनकर। अभी हाल ही में एक जूता व्यापारी की आत्महत्या की खबर किसी को भी विचलित करने के लिए काफी है और इन्हीं दुःखद घटनाओं से उपजी है यह कहानी जिसके जरिये मैंने अपनी बात कहने का प्रयास किया है। उम्मीद है इसे आप एक आम नागरिक के नजरिए से पढ़कर अपनी बेबाक टिप्पणी से अपने मनोभाव स्पष्ट कर लेखनी को सार्थक करेंगे। 🙏🙏

पलायन
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वह युवा सोशल मीडिया पर एक जाना पहचाना नाम बन गया था। लोगों तक पहुँचकर जन समस्याओं की पड़ताल करना और सरकार के बारे में उनकी राय सोशल मीडिया पर ज्यों की त्यों दिखाना उसका कार्य था।
आज वह लोगों की नहीं अपनी खुद की राय लोगों से साझा करनेवाला था और शायद इसीलिए बड़ा दुःखी नजर आ रहा था।

माइक थामकर उसने सबका अभिवादन किया और बोलना शुरू किया, ” साथियों, नमस्कार ! स्वागत है आप सभी का मेरे और आपके अपने पसंदीदा चैनल ‘जन की बात’ पर ! लोगों से जुड़े मुद्दे, उनकी परेशानियाँ, उनके विचार उनकी ही जुबानी मैं रोज ही आप सभी के समक्ष पेश करता हूँ लेकिन आज मैं हाजिर हूँ एक दर्दनाक खबर लेकर जिसे पेश करते हुए मेरा कलेजा दहल रहा है, आत्मा रो रही है। दिल की तड़प बेपनाह बढ़ गई है लेकिन चूँकि जन की बात करना मेरा काम ही नहीं, बल्कि मेरा कर्तव्य भी है इसलिए इस मार्मिक खबर को आपसे साझा करने से खुद को रोक भी नहीं सकता।” कहने के बाद वह कुछ पल के लिए खामोश हो गया।

उसके मन का अंतर्द्वंद्व उसके चेहरे पर स्पष्ट नजर आ रहा था। ऐसा लग रहा था जैसे वह सोच रहा हो कि क्या कहा जाए और कैसे कहा जाए ! कैमरा शुरू था, सो सोचने का अधिक वक्त भी नहीं था उसके पास।

संयत स्वर में उसने आगे कहना शुरू किया, “साथियों, खबर तो मैं बताऊँगा ही और उसका विश्लेषण भी करूँगा, लेकिन उससे पहले मैं आपके सामने एक खत पढ़ना चाहता हूँ जिसे ध्यान से सुनना आप सभी के लिए जरूरी है। यह खत पूरा होते होते आप समझ जाएँगे कि खत किसने लिखा, क्यों लिखा और किसके लिए लिखा ! इसी खत में छिपी हुई है आज की कड़वी हकीकत।”
और उसने मोबाइल की स्क्रीनपर देखकर पढ़ना शुरू किया
‘ यह खत पढ़नेवाले सभी महानुभावों को मेरा नमस्कार ! मेरा नाम पंकज, काश कि मैं इसके आगे ‘है’ लिख पाता, क्योंकि मुझे पता है जब यह खत आप पढ़ रहे होंगे मैं ‘था’ यानी भूतकाल हो चुका होऊँगा। जा चुका होऊँगा इस स्वार्थी, झूठी, मक्कार दुनिया से दूर नील गगन में सितारों की रंगीन दुनिया में जहाँ न होगी भूख, न बेबसी और न ही अमीर गरीब के बीच खिंची गई बेतरतीब लकीर ! आपने इससे पूर्व भी कई बेबस लोगों को हताश और निराश होकर जिंदगी से पल्ला झाड़ते देखा होगा, मैं भी देख चुका हूँ जिंदगी से निराश कई लोगों को जीवन से पलायन करते हुए लेकिन मुझे क्या पता था कि मुझे भी किसी दिन इसी राह का मुसाफिर बनना होगा। अभी कल परसों ही बुलंदशहर के एक जूता व्यापारी ने फेसबुक पर लाइव आकर आत्महत्या की है। दुःखद खबर ये भी है कि उसकी पत्नी भी उसके साथ ही जिंदगी से हाथ धो बैठी, लेकिन जानता हूँ, इन सबसे आप लोगों को कोई फर्क नहीं पड़ता। ये तो उनकी जिंदगी थी, दूसरों को क्या फर्क पड़ता है, लेकिन नहीं ..मैं अब समझ चुका हूँ और आप सबको समझाने की कोशिश कर रहा हूँ कि हमें फर्क पड़ता है ऐसी घटनाओं से। ऐसी घटनाएँ क्यों होती हैं, यह सभी जानते हैं। परिस्थितियाँ जिम्मेदार होती हैं ऐसी दुःखद घटनाओं के लिए और ये परिस्थितियाँ कैसे बनती हैं ? शायद आप लोग इसी बारे में गंभीरता से नहीं सोचते। जाने अंजाने कई बार हम अपने ही हाथों अपना भविष्य खराब कर लेते हैं दुष्प्रचारों का शिकार होकर। हम युवा भी ऐसी गलती कर चुके हैं एक निर्दयी संवेदनहीन सरकार बनवाकर। जो सरकार सात सौ से अधिक किसानों की मौत पर भी द्रवित ना हुई हो, उसे और क्या कहेंगे ? अब आप कहेंगे, सरकारों से हमारी जिंदगी का क्या लेनादेना ? कोई भी सरकार हो, हमें तो मेहनत करके ही खाना है, तो भाई जरा सोचो कि आखिर मेहनत कब करोगे ? जब आपके पास काम होगा, रोजगार होगा और रोजगार कब मिलता है ? जब सरकारें ऐसी नीतियाँ निर्धारित करें जिससे नए नए रोजगार का सृजन हो। आज इस अनुभव हीन सरकार की गलत नीतियों के चलते ही देश में बेरोजगारों की एक बड़ी फौज खड़ी हो गई है। जख्मों पर नमक तो तब महसूस किया हम युवाओं ने जब हमारे देश के शीर्ष नेता बेरोजगारों को पकौडे बेचने का रोजगार करने की सलाह दे रहे थे। सरसों का तेल दो सौ के पार हो गया है सो अब तो पकौड़े का रोजगार भी नहीं किया जा सकता है।
जानता हूँ आत्महत्या एक कायराना कदम समझा जाता है, दूसरे शब्दों में इसे जिंदगी से पलायन की संज्ञा भी दी जाती है लेकिन ऐसी घटनाएँ बेवजह नहीं होतीं। इसके लिए परिस्थितियाँ ही जिम्मेदार होती हैं जब इंसान को जीने से अधिक मरना पसंद आता है और ऐसी परिस्थितियों को लाने के लिए जिम्मेदार भी अप्रत्यक्ष रूप से हम सब ही होते हैं, यह शायद मेरी कहानी से और स्पष्ट हो जाए, जो मैं बताने जा रहा हूँ।

अपने कमजोर पैरों पर अपने इस जिस्म का बोझ लिए घूमते हुए मुझे लगभग 27 वर्ष हो गए थे लेकिन मैं थका नहीं था, कहीं रुका नहीं था। पिछले तीन सालों से अपनी जिम्मेदारियों का बोझ ढोते ढोते मेरे कंधे झुक गए थे, मेरी आस टूट गई थी लेकिन मेरा जमीर जिंदा था और इसीलिए मैंने इस दुनिया को अलविदा कह दिया।
आप लोग सोच रहे होंगे, अजीब पागल है कि मरा तो मरा ऊपर से बकवास किए जा रहा है, तो ऐसा हरगिज नहीं है। आप लोग ध्यान से मेरी पूरी कहानी पढ़ना इस खत के जरिए और कुछ ऐसा करना या कुछ ऐसा करवाना कि भविष्य में फिर किसी युवा को मेरी तरह इस दुनिया को अलविदा न कहना पड़े। जी हाँ ! ..युवा ! मैं भी 27 साल का एक युवा ही था। अपनी जिंदगी को लेकर सभी युवाओं की तरह मेरे भी कुछ सपने थे, कुछ इरादे थे। हो भी क्यों नहीं ? मध्यमवर्गीय परिवार से होने के बावजूद मेरा पालन पोषण बड़े ही लाड़प्यार से हुआ था। पिताजी की छोटी सी दुकानदारी से भी पूरे परिवार का भरण पोषण बड़ी आसानी से हो जाता था। कहीं कोई समस्या नहीं थी।
पढ़ने में तेज होने के कारण पिताजी को मुझसे काफी उम्मीदें थीं और मेरी खुद की इच्छा थी ,पढ़लिखकर कुछ काबिल बनने की और मातापिता की सेवा करने की लेकिन इस दुनिया में किसकी इच्छा पूरी हुई है जो मेरी होती ?
आज से सात साल पहले बीस बरस की अवस्था में मैंने अपना ग्रेजुएशन पूरा किया और कुछ काम करते हुए आगे पढ़ाई जारी रखने का प्रयास किया।
मास्टर्स में दाखिला लेने के बाद मैंने मोहल्ले के कुछ बच्चों को ट्यूशन पढ़ाना शुरू कर दिया ताकि मेरी पढ़ाई का अतिरिक्त भार पिताजी की दुकानदारी पर न पड़े। आम चुनावों के बाद सत्ता परिवर्तन से देश में उत्साह का वातावरण था लेकिन वास्तविक हालात इस उत्साह से परे काफी कठिन नजर आ रहे थे। अचानक निर्माण क्षेत्र से जुड़ा व्यवसाय मानो थम सा गया था जिसका व्यापक असर अन्य क्षेत्रों से जुड़े व्यवसायों व नौकरियों पर भी पड़ा। दिहाड़ी मजदूरों के शहरों से गाँवों में पलायन की खबरें अखबारों की सुर्खियाँ बन रही थीं लेकिन समाज का हर वर्ग सम्मोहन की स्थिति में सत्ताधारी पक्ष का प्रबल समर्थक बना रहा। मुझ सहित देश का हर युवा सत्ताधारी पक्ष व उसकी नीतियों का प्रबल समर्थक था।
यह वह दौर था जब ऑनलाइन व्यवसाय का विकास चरम पर था और धीरे धीरे दुकानदारी चौपट हो रही थी। यह विडंबना ही थी कि विपक्ष में रहते हुए छोटे दुकानदारों के भविष्य को लेकर विदेशी निवेश का विरोध करनेवाली पार्टी सत्ता मिलते ही शतप्रतिशत विदेशी निवेश की सबसे बड़ी पक्षधर बन गई थी।
ढेरों मुसीबतें सहन करके भी कालेधन की सफाई के नाम पर किये गए नोटबंदी का जनता ने दिल से स्वागत किया। उम्मीद तो यही थी कि जैसा प्रचारित किया जा रहा है एक दिन वह सच हो जाएगा लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। अलबत्ता अखबारों में कतारों में खड़े कई देशवासियों की मृत्यु की खबरों से सीना छलनी हो गया लेकिन अच्छे दिनों के दिवास्वप्न के भ्रमजाल में उलझे सभी देशवासियों की तरह मैं और मेरे युवा साथी लगातार सरकारी नीतियों के समर्थक बने रहे।
इसी बीच संसद की गहमागहमी में एक दिन कर सुधारों के लिए अपेक्षित जीएसटी कानून को भी लागू कर दिया गया। इसके प्रावधानों से पूर्णतया अंजान जनमानस पक्ष व विपक्ष की रस्साकशी के बीच अनावश्यक रूप से डरता रहा।

नोटबंदी की मार झेल रहे छोटे और मझोले व्यवसायी जीएसटी नाम का हौवा समक्ष देखकर बुरी तरह से टूट गए। विपक्ष ने भी लोगों को जीएसटी के नाम से डराने में कोई कसर नहीं छोड़ी। इन सबसे प्रभावित होनेवाले लाखों व्यवसायियों में से मेरे पिताजी भी एक थे।
उनकी छोटी सी ऑटो पार्ट्स की दुकानदारी के प्रभावित होने की एक बड़ी वजह और भी थी।
नोटबंदी व जीएसटी लागू करने के साथ ही सरकार ने बड़े शहरों में चलने वाले ऑटो वगैरह की अधिकतम उम्र निर्धारित कर दी जिसके तहत उम्र पूरी कर चुके अच्छी स्थिति वाले ऑटो को भी कबाड़ में देकर ऑटो चालकों को कर्ज लेकर नया ऑटो खरीदना पड़ा। इसका खामियाजा न सिर्फ ऑटोवालों को बल्कि मेरे पिताजी जैसे छोटे दुकानदारों को भी भुगतना पड़ा। ऑटोचालक जहाँ ऑटो की कीमत के रूप में बैंक की किश्त भरने के दबाव में थे वहीं ऑटो पार्ट्स वाले दुकानदार अचानक आई मंदी के शिकार होकर तनाव की स्थिति में आ गए थे।
नई गाड़ियों की वजह से सारी दुकानदारी ठप्प पड़ गई थी और धीरे धीरे उन्हें यह एहसास होने लगा था कि उनकी दुकान में पड़ा अधिकांश स्टॉक जो अब बंद हो चुकी गाड़ियों के थे, कबाड़ हो जानेवाले थे। ऑटो पार्ट्स वालों को पहले भी ऐसी स्थिति का सामना करना पड़ता रहा है लेकिन स्थिति इतनी खराब कभी नहीं हुई थी। इस बार प्रशासनीक सख्ती की वजह से कुछ ही दिनों में सभी ऑटोवालों ने नए नए ऑटो खरीद लिए थे। सड़कों पर चमचमाती ऑटो चला रहे ऑटो चालकों के मुख पर बैंकों की किश्तें भरने का अतिरिक्त भार वहन करने का दुःख सहज ही महसूस किया जा सकता था। समय से किश्तें न चुका पाने की वजह से बैंक वालों के दुर्व्यवहार से पिताजी भी दुःखी रहने लगे थे। इस व्यवसाय से जुड़ी कई फर्म बंद हो गईं।
यही वह समय था जब मुझे पोस्ट ग्रेजुएशन की डिग्री मिल गई थी और पिताजी का सहारा बनने के लिए मैंने नौकरी के लिए हाथ पाँव मारना शुरू कर दिया था। सरकारी नौकरी ही पाना मेरा उद्देश्य बिल्कुल नहीं था, लेकिन कम से कम अपनी शिक्षा के अनुरूप सम्मानजनक नौकरी पाने का मेरा प्रयास अवश्य था पर हाय रे मेरी किस्मत ! पुरजोर प्रयास के बाद भी मुझे कोई नौकरी नहीं मिली। इतना ही नहीं, जो पहले से निजी क्षेत्रों में कार्यरत थे उनकी नौकरियाँ भी अब खतरे में आ गई थी निजी कंपनियों की छँटनी नीति के चलते। बेरोजगारी के इस भयानक दौर से हम गुजर ही रहे थे कि देश में पकौड़े तलने के रोजगार का अनावश्यक विवाद हम बेरोजगारों के लिए जले पर नमक छिड़कने जैसा ही था।
देश की अर्थव्यस्था डाँवाडोल थी, महँगाई चढ़ान पर थी, औद्योगिक उत्पादन के आँकड़े कम से कम होते जा रहे थे कि ऐसे में कोरोना जैसी जानलेवा महामारी ने पूरे विश्व के साथ हमारे देश में भी पैर पसारने शुरू कर दिए।
एहतियातन लॉकडाउन पूरे देश में लगा दिया गया बिना किसी कारगर योजना के जिसका खामियाजा पूरे देश को भुगतना पड़ा। देश के सभी महानगरों से प्रवासी मजदूरों को पैदल ही अपने गाँव तक का हजारों किलोमीटर का सफर तय करने को मजबूर होना पड़ा जिसमें कइयों को अपनी जान से भी हाथ धोना पड़ा। यह कुदरत की मार थी जिसे दैवीय प्रकोप समझकर सबने सरकार की विफलता को भी सहन कर लिया। इसकी मार से क्या अमीर क्या गरीब कोई नहीं बच सका यह तो आप सब जानते हैं लेकिन इससे उबरने के बाद सरकार की संवेदनहीनता ने हमें कुछ सोचने पर मजबूर किया और धीरे धीरे हमारा इस सरकार से मोहभंग होता गया। देश के मुखिया के एक मंत्र ‘ आपदा में अवसर ‘ को देश के कई नेताओं व डॉक्टरों ने बड़ी संजीदगी से आत्मसात किया और उसी के अनुरूप आपदा के इस बुरे दौर में भी पी पी इ किट का एक बड़ा घोटाला प्रकाश में आया। हजार से दो हजार की कीमत वाले जीवन रक्षक ऑक्सीजन के सिलिंडर बेचनेवालों ने पच्चीस से तीस हजार रुपए प्रति सिलेंडर के वसूल कर आपदा में अवसर के मूलमंत्र को आत्मसात कर लेने का सबूत दिया।
कोरोना की पहली लहर से सबक न लेते हुए सरकार ने इस बीमारी से लड़ने का कोई कारगर उपाय नहीं किया जिसका नतीजा यह निकला कि कोरोना की दूसरी लहर में गंगा का पानी लाशों से पट गया। गंगा किनारे रेत में गड़े इंसानी जिस्मों को कुत्तों द्वारा नोचने का शर्मनाक दृश्य पूरी दुनिया ने देखा। सभ्यता, संस्कृति व धर्म की दुहाई देनेवाली यह सरकार जीते जी अपने नागरिकों को इलाज की सुविधा तो नहीं ही उपलब्ध करा पाई, मरने के बाद कइयों को चिता की अग्नि भी नसीब ना हुई। सब कुछ ठीक होने जा ही रहा था कि कोरोना का नया दौर फिर शुरू हो गया।
रोजगार की माँग करते युवाओं पर सरकारी जुल्म देखकर मन बहुत दुःखी था। उन्हें उनके हॉस्टल से निकालकर पीटा गया। क्या कसूर था उनका ?
और एक दिन अचानक मुझपर ईश्वर का कहर टूट पड़ा। मेरे पिताजी इस भयानक संक्रमण का शिकार हो गए। उनके इलाज के लिए मैंने पिताजी को बताए बिना दुकान भी पड़ोस के दुकानदार को औने पौने दाम में बेच दी। मजबूरी थी, क्योंकि और कोई खरीदता भी तो नहीं उस हालत में जबकि पिताजी अस्पताल में थे। पूरा प्रयास करने के बाद भी आखिर पिताजी हमें रोता बिलखता छोड़ गए। मैं अनाथ हो गया था। पिताजी मेरा कितना बड़ा सहारा थे इसका अनुभव मुझे उनके जाने के बाद ही हुआ। घर में अब माँ अकेली रह गई हैं क्यूँकि पिताजी की देखभाल और इलाज के चलते मैं भी कोरोना संक्रमित हो गया हूँ। नहीं चाहता कि यह भयानक बीमारी मेरी माँ या अन्य किसी को अपनी चपेट में ले। माँ मुझे अपनी जान से भी अधिक प्यारी है और अपने जीते जी उन्हें कोई तकलीफ हो यह मुझे गवारा नहीं। कहीं कोई सहारा नहीं बचा है और न ही अब मेरे अंदर परिस्थितियों से लड़ने की कोई क्षमता बची है। बहुत कुछ सोच समझकर मैंने यह फैसला कर लिया है कि अब मुझे जीने का कोई हक नहीं। मैं गंगा में जल समाधि लेने जा रहा हूँ, आखिर मरने के बाद मुझे भी तो यहीं फेंक दिया जाएगा अन्य लावारिस लाशों की तरह ! यह मेरा अपराध बोध है जिसने मुझे जीने नहीं दिया। मुझे लगता है देश के करोड़ों लोगों की तरह मैं भी इस देश की दुर्दशा और साथ ही अपनी बरबादी के लिए खुद जिम्मेदार हूँ। मैं अपनी तरह के उन तमाम युवा साथियों से कहना चाहता हूँ कि कभी भी किसी भी नेता पर विश्वास न करो, अपनी अक्ल का इस्तेमाल करो। जाति धर्म व अगड़े पिछड़े की बात करनेवाली कोई भी सरकार तुम्हें रोजी रोटी और रोजगार नहीं देगी, जिसकी हमें सबसे अधिक जरूरत है। जाति धर्म के नाम पर सिर्फ तुम्हें बहकाया जाएगा और अपना उल्लू सीधा किया जाएगा। सोच समझकर अपने मताधिकार का प्रयोग अवश्य करो, उम्मीदवार की जाति धर्म के बदले जनता के लिए उसकी भावनाओं को देखो, उसके चरित्र को देखो, यही तुम सबके लिए और देश की बेहतरी के लिए अति आवश्यक है। कहने के लिए बहुत कुछ है लेकिन बस… बहुत लंबा भाषण हो गया ..अब अलविदा !”

पत्र समाप्त करके उस युवा ने अपना हाथ अपनी आँखों पर फेरा, शायद आँखें भर आईं थीं उसकी। कुछ पल वह खामोश रहा और फिर कहना शुरू किया, “साथियों, अभी हमने परसों ही उत्तर प्रदेश के एक युवा दुकानदार और उनकी पत्नी की दर्दनाक आत्महत्या की वीडियो देखी, और आज यह दिल दहला देनेवाला खत। इन सभी दिवंगत आत्माओं को मेरी विनम्र श्रद्धांजलि लेकिन क्या आप लोग जिंदगी से पलायन कर जाने के इस युवक के फैसले को सही मानते हैं ? आप लोग अपने विचार कॉमेंट बॉक्स में अवश्य लिखिएगा लेकिन वीडियो अंत तक जरूर देखिएगा जिसमें आगे है इस घटना को लेकर मेरा नजरिया। मेरा मानना है कि उस युवा का जिंदगी से पलायन का यह कृत्य उसके बेहद कमजोर होने की निशानी है।
पहले चर्चा कर लेते हैं फेसबुक पर लाइव आत्महत्या करने वाले युवा दुकानदार की। बताया जाता है कि कारोबारी समस्या की वजह से वह काफी आर्थिक संकट का सामना कर रहे थे। कर्ज काफी बढ़ गया था। अरे भई व्यापार जब कर रहे हो तो आपको पता होना चाहिए कि लाभ के साथ ही हानि भी इसका दूसरा पक्ष होता है और अगर आप ईमानदारी और अपनी पूरी क्षमता से अपना कार्य करते रहे तो एक दिन जरूर आप हानि को लाभ में बदलते देखेंगे। इसी समाज में हमारे आसपास ऐसे ढेरों उदाहरण हैं जब व्यवसायी बर्बादी की कगार पर पहुँच कर फिर से बुलंदियों तक पहुँचे हैं। अगर कर्ज अधिक बढ़ गया था और अदायगी इतनी ही जरूरी थी तो इन्हें अपनी संपत्ति बेचकर कर्ज चुका देना चाहिए था। और कोई संपत्ति नहीं थी तो वह दुकान बेचकर ही कर्ज चुका देते और जुट जाते जीवनयापन के दूसरे तरीकों की ओर। मेहनत मजदूरी करके भी सम्मान से गुजरबसर करते हैं लोग। बिना संपत्ति के हमारे देश में क्या नहीं हैं लोग ? आत्महत्या किसी भी समस्या का समाधान नहीं।
अब आते हैं आज की खबर पर ! माना कि इन्हें पश्चात्ताप है गलत सरकार चुनने का, हो सकता है और भी बहुत से लोगों को यह शिकायत हो अपनेआप से लेकिन इसका यह मतलब तो नहीं कि आप खुद को ही समाप्त कर लें। सरकारें आती जाती रहती हैं और उसी के अनुसार नीतियाँ बदलती हैं जिसका व्यापक असर देश व आम जनों पर पड़ता है। पढ़े लिखे युवा को क्या इतना भी नहीं पता कि हम एक लोकतंत्र में रहते हैं जहाँ अन्ततः जनता की ही चलती है ? कोई भी सत्ता स्थायी नहीं होती। यदि सरकार आपकी अपेक्षाओं पर खरी नहीं उतरती तो उसके लिए खुद को मिटा लेना कहाँ की समझदारी है ? क्या इन पढ़े लिखे लोगों को अपने अधिकारों का पता नहीं ? इस युवा को अगर सरकार से कोई शिकायत थी तो वह हर मंच पर उसका विरोध करने के लिए स्वतंत्र था लेकिन उसने ऐसा नहीं किया। उसने जिंदगी से पलायन का रास्ता चुना बिना यह सोचे कि उसके बाद उसकी माँ का क्या होगा जो उसपर ही आश्रित थी। जिंदगी के सफर में सुख दुःख रूपी धूप छाँव आते जाते रहते हैं लेकिन जिंदगी का सफर कभी भी थमता नहीं। यह पल पल चलता रहता है अपनी मंजिल की तरफ।
जीवन, फिर वह चाहे किसी का भी हो, बेहद संघर्षपूर्ण होता है। कहा भी गया है, ‘जीवन – एक संघर्ष ‘ ! और इसी संघर्ष से दो दो हाथ करते हुए ईश्वर की इच्छा अनुसार जिंदगी जीना ही सही मायने में पुरुषार्थ है जिसका प्रयास सभी करते हैं व जिंदगी के इस विशाल रंगमंच पर अपना अपना किरदार निभाकर ईश्वर की मर्जी से इस नश्वर शरीर रूपी पात्र का परित्याग करते हैं।
प्रिय दर्शकों ! अंत में मेरी आप सभी से हाथ जोड़कर गुजारिश है कि ऐसी नकारात्मक खबरों का असर अपने दिल और दिमाग पर बिल्कुल भी न होने दें और इनसे सबक लेते हुए हमेशा अपनी बेहतरी के बारे में सोचें। निराशा को कभी अपने पास न फटकने दें। जिंदगी आपकी है, आप ही इसके निर्णायक हैं और हमेशा यह याद रखें कि जिंदगी अनमोल है , फिर कभी न मिलेगी दुबारा ! बस इतना ही, खुश रहें और देखते रहें ‘जन की बात !’ नमस्कार !’

राजकुमार कांदु

*राजकुमार कांदु

मुंबई के नजदीक मेरी रिहाइश । लेखन मेरे अंतर्मन की फरमाइश ।