लघुकथा

ईश्वर – अल्लाह

 

शहर में दंगा चरम पर था। कहीं से ‘अल्लाहो अकबर ‘ का समवेत शोर उभरता तो कहीं से जोर जोर से ‘ जय श्री राम ‘का गगनभेदी घोष वातावरण में गूँज उठता।
टोलियों में घूमते दंगाइयों के अलावा आम जनमानस कहीं नजर नहीं आ रहा था।

फूटपाथ पर पुरानी धोतियाँ तानकर बनी अपनी झुग्गी में बैठा दिहाड़ी मजदूर रामचंद्र भूख से बिलख रही अपनी चार बरस की बेटी गुड़िया को चुप कराने का प्रयास कर रहा था। वह और उसकी पत्नी सीमा ने खुद दो दिन से कुछ नहीं खाया था।
एक तरफ लटके कैलेंडर पर प्रभु श्रीराम से प्रार्थना करते हुए उसकी आँखें नम हो गई थीं, तभी दूर से उसे ‘अल्लाहो अकबर ‘ की उन्मादी भीड़ का शोर करीब आता हुआ महसूस हुआ।

आननफानन उसने उस कैलेंडर के ऊपर एक दूसरा कैलेंडर लटका दिया जिसपर मक्का की मशहूर मस्जिद व अरबी में लिखी कुरान की कुछ आयतें नजर आ रही थीं। ऐसा करते हुए उसने किसी भी हाल में सीमा को चुप रहने का इशारा किया और खुद झुग्गी से बाहर खड़ा हो गया।
भीड़ के करीब आते ही वह भी अल्लाहो अकबर का नारा बुलंद करने लगा।
आगे बढ़ चुकी दंगाइयों की भीड़ में से एक ने रुककर उसका नाम पूछा।
उसने बेखौफ अंदाज में चट से जवाब दिया, “रहीम, … रहीम नाम है मेरा।”
शायद वह दंगाई उसके जवाब से संतुष्ट नहीं था सो उसने झाँककर झुग्गी में देखा और सामने ही लटके कैलेंडर पर मक्का मस्जिद की तस्वीर देखकर मन ही मन ‘तौबा तौबा ‘ कहते हुए वह आगे बढ़ चुकी दंगाइयों की भीड़ में शामिल हो गया।
पीछे दूर दूर तक फुटपाथ पर कई झुग्गियों के तहसनहस होने के साथ ही कई इंसानी जिस्म लहूलुहान अवस्था में तड़पते नजर आ रहे थे।

खौफ से काँपते रामचंद्र ने झुग्गी में कुछ समय बिताया ही था कि ‘जय श्री राम ‘ की गर्जना के साथ एक भारी जनसैलाब नजदीक आता हुआ उसे महसूस हुआ।
तुरंत ही उसने ऊपरवाला कैलेंडर लपेटकर कोने में रख दिया। अब कैलेंडर पर धनुर्धारी पूर्ववत मुस्कुरा रहे थे।

कुछ देर बाद रामचंद्र ने बाहर निकल कर देखा। जय श्रीराम का जयघोष करते लोगों की भीड़ दूर जा रही थी।
पीछे सड़क पर तड़प रहे लहूलुहान जिस्मों में बेतहाशा वृद्धि एक भयानक तूफान के गुजर जाने की गवाही दे रही थी।
रामचंद्र के मन में एक पुराने गीत की पंक्तियाँ बज उठीं ..’अल्लाह तेरो नाम..ईश्वर तेरो नाम …!’

राजकुमार कांदु
मौलिक / स्वरचित

*राजकुमार कांदु

मुंबई के नजदीक मेरी रिहाइश । लेखन मेरे अंतर्मन की फरमाइश ।