लघुकथा

उधार

लगभग 11 साल बाद आज फिर नेमानी प्रणव और उनकी बहन सुचिता आंध्र प्रदेश के यू कोथापल्ली में आए थे.
तब और अब में बहुत फर्क था.
तब उनके पिता एनआरआई मोहन जी ने यू कोथापल्ली में मूंगफलीवाले सत्तैया से मूंगफली ली थीं, लेकिन पर्स घर भूल आने के कारण मूंगफली के पैसे चुका नहीं पाए थे.
सत्तैया साधारण रूप-रंग का साधारण व्यक्ति था, लेकिन उसकी मूंगफलियां साधारण नहीं थीं. बीच पर आने वाले लोगों का टाइम पास थीं और बच्चों की आंखों की भूख का ज़रिया. मूंगफली वाले को देखकर भरे पेट वाले बच्चों की भूख जग जाती थी.
साइकिल पर टोकरी रखकर रोज बीच पर मूंगफली बेचकर दो जून रोटी का जुगाड़ कर पाता था. एनआरआई होने के बावजूद उस बार मोहन जी मूंगफली का दाम चुकाने का जुगाड़ नहीं कर पाए थे, सो जल्दी ही उधार चुकाने का वादा करके ही बच्चों को मूंगफली खिला पाए थे.
सत्तैया ने उधार की बात को छोड़कर हंसते-हंसती मुफ्त में ही मूंगफली दे दी थी.
दाम लेकर मूंगफली बेचने में आनंद था, पर फ्री में मूंगफली खिलाकर बच्चों के चेहरे पर प्रसन्नता देखने का आनंद कुछ अलग ही था, सत्तैया ने उस दिन जाना.
मोहन जी ने सत्तैया के एक-दो फोटोज़ खींच लिए.
अतिरिक्त पैसे होने पर भी सोच-समझकर उधार दिया जाता है, उधार लेने वाला भी जल्दी ही उधार चुकाने का वादा कर उधार लेता है. अब उधार चुकाया जा सकता है अथवा उधार लेने वाले की उधार चुकाने की मनशा है या नहीं, वह बात दीगर होती है.
मोहन जी न तो आर्थिक दृष्टि से उधार चुकाने में असमर्थ थे, न ही उधार न चुकाने की उनकी मनोवृत्ति थी.
बावजूद इसके वे उधार चुका नहीं पाए थे. एनआरआई होने के कारण उन्हें कुछ दिनों की यात्रा के बाद ही अमेरिका लौटना पड़ा था.
सत्तैया तो भले ही फ्री में मूंगफलियां खिलाकर भूल लिया था, पर मोहन जी और उनके बच्चे न तो फ्री की मूंगफली को भुला पाए थे, न सत्तैया के उधार को.
इस बार मोहन जी के बच्चे भारत आए थे, तो उधार चुकाने ही यू कोथापल्ली आए थे. .
अब सत्तैया मूंगफली वाले को कहां और कैसे ढूंढा जाए, यह बड़ी समस्या थी!
सत्तैया को ढूंढना तो था ही, सो विदेश से मोहन जी की गुजारिश के बाद विधायक ने तुरंत फेसबुक पर सत्तैया की तलाश में एक पोस्ट डाली. तब के खींचे फोटोज़ अब उनके काम आ गए थे. शीघ्र ही उसके ठिकाने का पता भी लग गया.
अफसोस कि सत्तैया अब इस दुनिया में नहीं था, पर उसके परिवार को 25 हजार का चैक देकर उन्होंने उधार चुका दिया था.
‘ऐसा उधार शायद न तो कभी दिया गया होगा, न ही ऐसा उधार कभी चुकाया गया होगा.’ जिसने भी सुना, उसका कहना था.

पुनश्च-
अधिकतर नये और कई धुरन्धर लेखक भी हिन्दी लिखते समय अनुस्वार (बिन्दी) लगाने में बहुत मनमानी करते हैं। वे इसे फालतू का चिह्न समझते हैं और इसे उपेक्षित करने में अपनी शान समझते हैं। वे ‘में’ को ‘मे’ और ‘नहीं’ को ‘नही’ इतने अधिकार से लिखते हैं कि उनके साहस पर आश्चर्य होता है। वे एकवचन और बहुवचन में भेदभाव नहीं करते, इसलिए ‘है’ और ‘हैं’ को एक दृष्टि से देखते हैं। ऐसे लेखकों की रचनाओं को सम्पादित करते समय सम्पादक को बहुत खीझ होती है।
यह बात मान लेनी चाहिए कि अनुस्वार कोई अनावश्यक चिह्न नहीं है, बल्कि व्याकरण और भाषा की शुद्धता की दृष्टि से अति आवश्यक चिह्न है। इसलिए जहाँ भी आवश्यक हो, वहाँ अनुस्वार का उपयोग अवश्य करें। विशेष रूप से में, मैं, हैं, हां, नहीं, दोनों, करेंगे आदि ऐसे बहुप्रचलित शब्द हैं, जिनमें अनुस्वार का प्रयोग आवश्यक है।
कई लोग अनुस्वार की जगह आधा ‘न’ लिख देते हैं, जैसे अन्डा। यह गलत है। अनुस्वार की जगह आधा न केवल त वर्ग के अक्षरों (त, थ, द, ध) के साथ लिखा जा सकता है, जैसे- अन्त, मन्द, गन्ध आदि। इनको अंत, मंद और गंध भी लिखा जा सकता है। अंडा को यदि हम अनुस्वार के बिना लिखना चाहते हैं, तो उसे अण्डा लिखना चाहिए, यद्यपि इसकी आवश्यकता नहीं है, ‘अंडा’ भी शुद्ध है।
कई लोग अज्ञान के कारण अनुस्वार लगाने में गलती कर जाते हैं, जैसे वे करेंगे को करेगें लिखते हैं। यह भी गलत है। यदि वे शब्दों के उच्चारण पर ध्यान दें, तो ऐसी गलतियाँ नहीं होंगी। नागरी लिपि में उच्चारण और लेखन में जो एकरूपता है, उसका पूरा लाभ उठाना चाहिए, क्योंकि यहाँ अंग्रेजी की तरह वर्तनी नहीं रटी जाती।
— डॉ. विजय कुमार सिंघल
संपादक- जय विजय
हो सके तो इस लेख को 50 बार पढ़ें और भली भांति सेव कर लें. छोटे-बड़ों के लिए यह आलेख अत्यंत उपयोगी है.

विजय भाई, इस आलेख के लिए आपकी जितनी अनुशंसा की जाए कम है. अत्यंत महत्वपूर्ण-उपयोगी इस आलेख के लिए बहुत-बहुत शुक्रिया.

*लीला तिवानी

लेखक/रचनाकार: लीला तिवानी। शिक्षा हिंदी में एम.ए., एम.एड.। कई वर्षों से हिंदी अध्यापन के पश्चात रिटायर्ड। दिल्ली राज्य स्तर पर तथा राष्ट्रीय स्तर पर दो शोधपत्र पुरस्कृत। हिंदी-सिंधी भाषा में पुस्तकें प्रकाशित। अनेक पत्र-पत्रिकाओं में नियमित रूप से रचनाएं प्रकाशित होती रहती हैं। लीला तिवानी 57, बैंक अपार्टमेंट्स, प्लॉट नं. 22, सैक्टर- 4 द्वारका, नई दिल्ली पिन कोड- 110078 मोबाइल- +91 98681 25244

One thought on “उधार

  • *लीला तिवानी

    उधार लेना और कर्ज के तले दब जाना आम बात है. पैसे के कर्ज को चुकाना आज की दुनिया में सबसे कठिन काम है. ब्याज-पर-ब्याज जोड़कर साहूकार किसी की उम्र ही नहीं पीढ़ियां तक तबाह कर देते हैं. उम्र किश्ते चुकाने में ही निकल जाती है. आर्थिक कठिनाई के कारण जीवन में कई बार हमें कर्ज लेना पड़ता है, लेकिन उसके बाद बड़ी समस्या कर्ज उतारने की आती है कई बार तो यह कर्ज जीवन से उतरने का नाम ही नहीं लेता है. जितनी जल्दी हो सके कर्ज के मर्ज से छुटकारा पाना चाहिए.

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