कविता

हाय हाय री मजबूरी

घर से निकला
गर्मी में चंद कदम चल
मैं तो वापस लौट आया
हाय हाय मजबूरी
कपड़ा और रोटी
की जद्दोजहद में
मजदूर को देखा
पसीना बहाते
नंगे सिर
ईंट सीमेंट ढोते
वह कैसे लौट जाता
डर कर इन लू के थपेड़ों से
वह भी अगर डर जाय
तो कैसे जले रात को उसके घर चूल्हा

*ब्रजेश गुप्ता

मैं भारतीय स्टेट बैंक ,आगरा के प्रशासनिक कार्यालय से प्रबंधक के रूप में 2015 में रिटायर्ड हुआ हूं वर्तमान में पुष्पांजलि गार्डेनिया, सिकंदरा में रिटायर्ड जीवन व्यतीत कर रहा है कुछ माह से मैं अपने विचारों का संकलन कर रहा हूं M- 9917474020