कविता

कलयुग की करामात…

प्रलय महाप्रलय की ये रात है ।
यह कलयुग की करामात है ।।
विनाश महाविनाश की महाकाल !
छेड़ती प्रकृति की प्रवृत्ति विकराल !!
महा शक्तियां अपने वर्चस्व बचाने में !
लगे है मानव सभ्य संसार मिटाने में !!
मानव द्वारा बोया हुआ
मानवता पर आघात है ।
यह कलयुग की करामात है ।।
वक्त बेवक्त बेमौत इंसान मर रहा है !
इंसानों से ही इंसान क्यूं डर रहा है !!
संसार अभी भी कितने विषयों से है परे !
कम से कम ऊपर वालों के शक्ति से डरें !!
प्रतिद्वंदी प्रतिकूल प्रति प्रभाव
प्रति व्यक्तित्व प्रतिघात है ।
यह कलयुग की करामात है ।।
‘मैं’ शब्द को कभी भी नहीं मिल पाया महत्व !
हृदय की अंतर्दृष्टि अंतर्मन है इसकी दायित्व !!
कमजोर हो जाती है सब के साथ वर्ष दर वर्ष में !
मिलने के लिए बीत जाते हैं जीवन पूर्ण संघर्ष में !!
कहीं जीती हुई बाजी तो
कहीं हारी हुई जज्बात है ।
यह कलयुग की करामात है ।।
प्रलय महाप्रलय की ये रात है ।
यह कलयुग की करामात है ।।

मनोज शाह 'मानस'

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