गीतिका/ग़ज़ल

मेरे मन में आओ

कभी तो मेरे  आंगन में आओ ।
या फिर खुला दामन में आओ ।।
टूटते हुए  बिखरते हुए मंजिल,
धड़कते हुए धड़कन में आओ ।
पंख लग जाए परवानों में भी,
अगर संग संग गगन में आओ ।
मंच मिल जाए अरमानों को भी,
दिलवर दिल के मंचन में आओ ।
अर्पण में भी  तड़पन में भी तुम,
समर्पित अर्पित जीवन में आओ ।
मेरा मन समर्पित मेरा तन समर्पित,
पूर्ण जीवन रेखा समर्पण में आओ ।
ये महफ़िल वो साहिल और मंजिल,
दिल ए नादान  धड़कन में आओ  ।
बात जज़्बात और फिर मुलाकात,
उस सन्नाटे की प्रांगण में आओ ।
अंतर्दृष्टि से अंतर्मन की दृष्टि सीमा,
क्षितिज के पार  अंतर्मन में आओ ।
पलकों पे सपने बिठाए बैठे हैं हम,
ये सूनापन खालिस नयन में आओ ।
होंठ रसीली और ये नयन नशीली,
अब तन्हाइयों की आंगन में आओ ।
ये दिल पुकार रहा है तुम्हें बार बार,
मंदाकिनी अब तो मेरे मन में आओ ।

मनोज शाह 'मानस'

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