लघुकथा

लघुकथा – मोटर साइकिल

“देखिए मास्टर साहब को, दस साल से नौकरी कर रहे हैं; अभी तक एक मोटर साइकिल नहीं खरीद पाए है” विजय गुप्ता ने कहा। अपने सहकर्मी विजय की बात सुनकर अवाक रह गया कुणाल वर्मा। उन्होंने देखा कि मास्टर साहब संजय साह का चेहरा थोड़ा सफेद पड़ गया है। बात को दूसरी तरफ ले जाने की कोशिश करते हुए कुणाल ने कहा,”क्या कहते हो विजय, संजय बाबू जब चाहेंगे मोटर साइकिल क्या चार पहिया भी खरीद सकते हैं।”
संजय विजय की बात से खिन्न जरूर हुआ लेकिन अपना आपा नहीं खोया। शांत भाव से संजय ने विजय को कहा, “अरे विजय, मेरा स्कूल मेरे घर से आधा किलोमीटर दूर है। स्कूल जाने के लिए साइकिल ही काफी है। मोटर साइकिल खरीदना मेरे लिए जरूरी नहीं है। तुम अपने दोनों बेटे के लिए एक एक कार खरीद कर दे दो। तुम्हारी औकात है। मेरी औकात नहीं है। मेरा सपना अपने बेटे को डॉक्टर बनाना है। पेट्रोल में जो खर्च हो सकता है उसे बचा रहा  हूँ। तुम्हें पता भी नहीं होगा कि मेरा बेटा आकाश इंस्टीट्यूट दिल्ली में डाक्टरी की तैयारी कर रहा है।”
विजय हें हें कर हंस दिया। कुणाल ने दोनों को पकड़कर सामने चाय की दुकान पर ले गया।
— निर्मल कुमार दे 

निर्मल कुमार डे

जमशेदपुर झारखंड nirmalkumardey07@gmail.com