कविता

मौत और कवि की खिचड़ी

ऐ मौत! तू अभी ठहर
तुझे इतनी जल्दी क्या थी
अभी तो खिचड़ी पकी भी नहीं
और तू मूंह उठाए आ गई
पतीली पर नजर भी गड़ा लिया।
चल अच्छा है मुझे आराम दिया
मैं इंतज़ार करता तेरी राह तकता
इतना तो ख्याल किया तूने।
पर अब तू भी इंतजार कर मेरे साथ
ये कवि की खिचड़ी है
अधपकी,अधकचरी भी रह सकती है।
पतीली में पकते पकते खत्म भी
हो जाय तो भी आश्चर्य मत करना
खिचड़ी भोज से वंचित होने का अफसोस मत करना
मैं तुझे कविताओं की खिचड़ी खिलाऊंगा
भूखे पेट निराश नहीं जाने दूंगा
तेरी ख्वाहिश पूरी हो सके
ऐसा कुछ न कुछ बंदोबस्त कर दूंगा।
पर चूल्हे की आग ठंडी होने तक
तुझे सब्र भी करने को तो कहूंगा ही।
मैं तो खाऊंगा तुझे भी खिलाऊंगा
वरना कविता की खिचड़ी लिए तेरे साथ
मैं भी आगे बढ़ जाऊंगा।
पर तेरी सुविधा से नहीं अपनी सुविधा से
तेरी ख्वाहिश पूरी होने का माहौल बनाऊंगा।
बस!ऐ मौत अभी तू थोड़ा ठहर तो सही
तुझे ऐसी खिचड़ी खिलाऊंगा
तू भी क्या याद रखेगी
दुबारा आने से पहले हर बार
मेरी खिचड़ी को याद करेगी?

*सुधीर श्रीवास्तव

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