सामाजिक

ये भी देखो समझो

जहां सुमति होती हैं वहां संपत्ति भी होती है,परिवार में एक विचार होने से एक सा ही व्यवहार होता हैं।एक सा व्यवहार होने से परिवार  में एकरूपता आती हैं।इससे परिवार की उन्नति होती हैं। सुमति होने से भिन्न विचार होने पर भी सभ्य के बीच सुमेल रहता हैं।और कुमति होने से सभ्यों के बीच एक प्रकार से मन मुटाव सा रहता हैं,स्वार्थवश एक दूसरे के प्रति अलगाव सा हो जाता हैं।परिवार की फिक्र कर ने से ज्यादा सब अपनी अपनी फिक्र करते हैं। जहां स्वार्थ हैं वहां उन्नति भी वयक्तिक होती हैं,सामूहिक नहीं,पूरे परिवार की नहीं।स्वार्थी व्यक्ति अपने ही फायदे के लिए सोचेगा,कार्य भी अपने लिए करेगा और उन्नति भी उसी की होगी। वहां परिवार के लिए कुछ नहीं होगा।आजकल सब अपनी जिंदगी को बनाने ही होड़ में अपनों को पीछे छोड़ते जा रहे हैं।घर के प्रश्नों में अगर रस ले तो सब के लिए हल आएगा लेकिन वे तो सोचते हैं ’मेरी भी जिंदगी हैं और मैं अपने बारे में ही सोचूं’ क्या यह सही हैं? परिवार ने जो तुम्हारे लिए किया,सुख दुःख बीमारी मै तुम्हारा साथ दिया वह भूल सिर्फ अपने ही बारे में सोचना कहा तक
 वाजिब हैं,किंतु स्वार्थ अंधा होता हैं,उसे सोच के चश्मे पहनाकर वास्तविकता से वाकिफ करना ही सुमति है।
वैसे ही देश हित में सुमति होना आवश्यक हैं,जैसे सब अपनी अपनी जात बिरादरी और धर्म के बारे में न सोच देश के बारे में सोचेंगे तो देश में भी प्रगति होगी।जातीगत प्रगति तो अपने आप ही हो जायेगी जब देश का विकास होगा।वैसे धर्म का हैं,अपने धर्म  के अलावा देश धर्म की भावना हैं भी बहुत जरूरी हैं।एकता की भावना से ही देश में शांति आयेगी,प्रगति होगी।दुनिया में देश का नाम होगा तो जो एयरपोर्ट्स पर हिन्दुस्तानियों के साथ तमाशे होते हैं, वह नहीं होके  सम्मान मिलेगा देश को और देश वासियों को भी।जब मति सही होती है तो सोच भी हकारात्मक हो जाती हैं,तो तुलसीदास जी ने जो सुनहरी रचना द्वारा समझ दी हैं उसका अनुकरण कर प्रगति के पंथ पर खुद भी चलो और देश को भी ले जाओ।
जैसी दृष्टि वैसी श्रृष्टि ये सब को विदित हैं।हंस  मोती ही चुगेगा और कौआ विष्ठा,तो अब समझना बहुत जरूरी है कि कौन से ग्रंथ में क्या लिखा हैं।हमारे ग्रंथों में सदाचार,जीवन व्यवहार में उपयुक्त सूचनों और हरेक तब्बके के लोगों को जीवन यापन के लिए रास्ता दिखाया गया हैं।ब्राह्मणों के लिए धर्म ध्यान और शिक्षा प्रदान करना,वैश्यों को व्यापार करना और मुनाफे से कुछ दान धर्म के लिए उपयोग करना,क्षत्रियों को शास्त्र उठा देश और प्रजा का रक्षण करने के लिए जरूरी नियमों का शिक्षण देना आदि समझाया गया है।दूसरे वर्ग में कारीगरों और दूसरे सेवादारों में लिए भी एक प्रकार से जीने के तरीकों के बारे में भी बताया गया हैं।ऐसे बहुआयामी ग्रंथों और कितनों को बहिष्कृत करने की बाते कर अपनी नकारात्मक प्रचार कर अति ख्याति पाना कहां तक वाजिब हैं।एक ही शब्द के बहुत से अर्थ होते हैं अगर हम अपनी अल्प बुद्धि से उसका अर्थघटन करेंगे तो गैरसमझ के अलावा कुछ नहीं प्राप्त होगा।जो शास्त्र सदियों से विद्यमान हैं जिसे पढ़ कर लोग अपने जीवन की समस्याओं का हल ढूंढते आए हैं उन्हे नकारात्मक बहुचर्चित कर ने से समाज व्यवस्था पर गहरा प्रभाव पड़ता हैं।ये इन कथित महापुरुषों को समझना पड़ेगा।जिस स्थान पर हम उन्हे चयनित कर के बिठाते है उस स्थान की मर्यादा का पालन करना उनका राज धर्म बन जाता है।राष्ट्र के प्रति उनकी हम से ज्यादा जिम्मेवारियां हैं जिसका पालन कर के ही वे अपना स्थान कायम रख पायेंगे।यदि ऐसी टिप्पणियां करने वाला आपका रिश्तेदार हो या नेता उनका बहिष्कार कर हमें अपनी नाराजगी दिखानी चाहिए।सनातनी घरों में इन ग्रंथों का अध्ययन होता ही हैं,उनके पूर्वजों ने भी किया ही होगा तो क्या वे अपने पूर्वजों की आस्था को जुठलाते नहीं हैं।ये उनका सोनी पीढ़ी के धर्म के साथ अन्याय नहीं हैं?
— जयश्री बिरमी

जयश्री बिर्मी

अहमदाबाद से, निवृत्त उच्च माध्यमिक शिक्षिका। कुछ महीनों से लेखन कार्य शुरू किया हैं।फूड एंड न्यूट्रीशन के बारे में लिखने में ज्यादा महारत है।