कविता

विरह व्यथा

विरह व्यथा के दग्ध सेज पर,
एक    दुखियारी    सोई   थी।
निर्मोही     निर्मोक     उतारो,
जाने वह  कितना   रोई   थी।
ओ याद समन्दर से भी गहरा,
गजगामिनी सी आई आई थी।
एक   सुनहरा    सपन   लिए,
झिझकी -सिसकी  शर्माई थी।
अंग  अंग   कितनी  कोमल है,
मानो   सरिता  सा   निर्मल  है।
दामिनी  सी  उसकी  चंचलता,
नवल  प्रात  सा  तन  मन  है।
आएगा    प्रिय    बाहुपाश  मे,
हार  गयी वह सांस  सास  मे।
जीवन  की  मधिम लौ कहती,
देखो   कही   आस  पास   में।
उसे  हृदय  की  गीत सुनाकर,
पीड़ा   का   संगीत   बजाकर।
छेडो  मन   का  राग   तराना,
शब्द  शब्द मे प्रीति  सजाकर।

— बिन्दू चौहान

बिन्दू चौहान

नवोदित कवयित्री व शिक्षिका,स0अ0,उच्च प्रा0वि0- उर्दहिया,विख-खलिलाबाद, संत कबीर नगर,उत्तर प्रदेश