Author: गोपाल बघेल 'मधु'

कविता

कण कण में कृष्ण क्रीड़ा किए

कण कण में कृष्ण क्रीड़ा किए, हर क्षण रहते; कर्षण कराके घर्षण दे, कल्मष हरते! हर राह विरह विरागों में, संग वे विचरते; हर हार विहारों की व्यथा, वे ही हैं सुधते! संस्कार हरेक करके वे क्षय, अक्षर करते; आलोक अपने घुमा फिरा, ऊर्द्ध्वित त्वरते! कारण प्रभाव हाव भाव, वे ही तो भरते; भावों अभावों देश काल, वे ही घुमाते! थक जाते राह चलते, वे ही धीर बँधाते; मँझधार बीच तारक  बन, ‘मधु’ को बचाते! ✍🏻 गोपाल बघेल ‘मधु’

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धर्म-संस्कृति-अध्यात्म

आध्यात्मिक संचरण व जागतिक जागरण! 

अध्यात्म की कई अवस्थाएँ हैं। शारीरिक व मानसिक स्तर पर अनेक प्रस्फुरण हैं। कुछ अवस्थाओं में कोई व्यक्ति अच्छा समाज

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कविता

सुनके ज़्यादा भी करोगे तुम क्या

सुनके ज़्यादा भी करोगे तुम क्या, ध्वनि कितनी विचित्र सारे जहान; भला ना सुनना आवाज़ें सब ही, चहते विश्राम कर्ण-पट देही ! सुनाया सुन लिया बहुत कुछ ही, सुनो अब भूमा तरंग ॐ मही; उसमें पा जाओगे नाद सब ही, गौण होएँगे सभी स्वर तब ही ! राग भ्रमरा का समझ आएगा, गुनगुना ब्रह्म भाव भाएगा; सोच हर हिय का ध्यान धाएगा, कान कुछ करना फिर न चाहेगा ! जो भी कर रही सृष्टि करने दो, सुन रहे उनको अभी सुनने दो; सुनो तुम उनकी सुने उनको जो, सुनाओ उनको लखे उनको जो ! गूँज जब उनकी सुनो लो थिरकन, बिखेरो सुर की लहर फुरके सुमन; बना ‘मधु’ इन्द्रियों को उर की जुवान, रास लीला में रमे ब्रज अँगना !

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