आओ उठेँ हम फिर से
रोज दिन उठता है
रोज दिन ढलता है
काफिला परिँदोँ का
ऐंसे ही चलता है
पेड चुपचाप खडे रहते,
थपेडे हवा हैँ सहते,
रोज बादल हो इकट्ठे
ऐँसे ही हैँ बहते।
अंधेरा रोज शाम आता,
निशा का जाम लाता,
तारे रोज यूँ चमकते
अंबर यूँ ही रह जाता।
कुछ मचलता नहीँ है,
आगे चलता नहीँ है,
सब मौन देखेँ तमाशा
ये बदलता नहीँ है।
मन की मेरे कुलबुलाहट,
आने वाले कल की आहट,
फिर कुछ नया करने
की उठती सुगबुगाहट।
आओ उठेँ हम फिर से,
जायेँ ना खुद से गिर से,
अब आग हम जलाएँ नयी
शुरु करेँ कहीँ तिमिर से।
___सौरभ कुमार दुबे
dhanyawaad sir,,,
उत्तम कविता !