कविता

नहीं समेटी नहीं जाती पीर अब तो

नहीं 
समेटी नहीं जाती
पीर अब तो
कागजो में
हर्फ़ों में 
किस्सों में
विचारों में
मात्र यहाँ
या और कही भी
लिख देने भर से
नहीं सुलझता ये
जाला उलझन का
…..
जबसे बदलने लगे
हालात मुल्क के
महफूज़ नहीं बेटियां
घरो में आजकल
घुस रहे है भेड़िये
दीवारे फांदकर
गोश्त की चाह में
वही
टपकता है खून
किसी कोने में
सिसकती माँ की
आँखों से..बेहिसाब
……
सही कहती थी माँ
बेटा ही होना चाहिए था
बेटा ही चाहिए था
इस तरह…हर बार
बेटी की चीख सुन
ना रखना पड़ता
कानो पर..
शुष्क हथेलियों को
बेटा ही होता..
…तो..
न टंगती बेटी
न उधेडी जाती
न नग्न होती
न उसकी कोख को
दिए जाते ताने
न अपमान ही होता
…..
पर
अब बदला है
समय भी तो
क्या चाहिए बेटा
नहीं..नहीं
नहीं चाहिए
अब बेटा भी
न होगा तो
बेऔलाद अच्छी
कहती है माँ
….
बेटा नहीं
..तो…
बलात्कारी नहीं
नर-पिशाच नहीं
दम्भी पुरुष नहीं
लालची आदमी नहीं
नहीं चाहिए अब
न बेटी…
न बेटा

कर दो विनाश
सृष्टि का ही
रिक्त करो अब
पीड़ा हरो अब
पशु अच्छे
पक्षी अच्छे
धरा अच्छी
ये वृक्ष अच्छे
इन्हें दो अब
फलने-फूलने
मनुष्य का
अंत ही करो
हे सृष्टि
श्राप दो
सहारा दो
मुक्ति दो
और…
मोक्ष भी
______________________ गंगा

One thought on “नहीं समेटी नहीं जाती पीर अब तो

  • विजय कुमार सिंघल

    अच्छी सामयिक कविता.

Comments are closed.