कविता

जला आई हूँ मैं

जला आई हूँ मैं
तुम्हारी रामायण
जहाँ पूजा जा रहा था
सीता को…
बनाकर देवी-स्वरूपा
नहीं बनना था मुझे सीता
नहीं देनी थी अग्नि-परीक्षा
ना समाना था..
धरती की गोद में
नहीं लेना था..
तमगा कोई
पतिव्रता होने का
ना भटकना था
विरह भोगने हेतु
ना जीना था
जीवन एकाकी
इसलिए…था जरुरी
जला दूँ मैं
तुम्हारी रामायण
…..
दफना दिया है
मेरी कुरआन को
उसी जगह
जहाँ पढ़े थे
फतवे उसने
मेरे खिलाफ
ना दिया कभी
हक बराबरी का
मुझे पहनाया गया
बुर्का…जबरदस्ती
छीना…हज़ारो बार
आजादी को भी
नेस्तोनाबूद कर डाला
मुस्तकबिल मिरा
और…दे दी पनाह
माज़ी के दरमियाँ
जरुरी था उसका
दफ्न होना
ताकि जी सकूँ मैं
……
लो…
सांस लेने लगी हूँ अब
आओ…
आओ जो हिम्मत है
आओ जो हौसला है
मुझे सती कर देने का
या कह देने का…
बस यूँही…
तलाक..तलाक…तलाक
आओ…
डालो अपनी
बेगैरत आँखे
मेरी आँखों में तुम
और महसूस करो
बेचारगी मुझसी आज
आओ…
लूट लो अस्मत…
करो तार-तार
गर बस में है तुम्हारे
……
नहीं…अब नहीं
विपक्ष में
हो खड़े तुम भी
धर्म संग
ढह चुके तुम भी
धर्मान्धता में जब
जिलाया गया
बाबस्ता…
दफनाया गया
मिल गया ना मोक्ष
मिल चुकी जन्नत
जाओ फिर…
हो जाओ आज़ाद
मेरी सहनसीमा से भी
देर ना करना…
अब यहाँ…सीता नहीं
..ना सलमा कोई
…अब है तेज़ाब
इन आँखों में भी
..जाओ..
जी लो तुम
अगर जी सको तो
जाओ…
चले जाओ…
हो जाओ मुक्त
मेरी बददुआ से
और…मुझसे भी….
जाओ…जाओ…चले जाओ…

_______________________ गंगा

One thought on “जला आई हूँ मैं

  • विजय कुमार सिंघल

    बहुत खूब !

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