मन वृंदावन मेँ छूट गया।।
मतवाला बनकर चलने वाला अपनी मनमानी करता था।
रमने वाला जो विषयोँ मेँ, सुख की खीँचातानी करता था।।
कभी एक हो नहीँ बैठता अपनी शाखाएँ फैलाया करता था।
मन तो आखिर मन है समझ मिठाई, चूना खाया करता था।।
बडा नटखट था ,चंचल था, बडी चपलता करता था।
पास न संयम, न संकोच और नही सरलता धरता था।।
भरा पाप का घट था जैसे श्री चरणोँ मेँ फूट गया।
तन हो आया मंदिर पर ,मन वृंदावन मेँ छूट गया।।
राधे राधे लगा है गाने हरे कृष्ण अब जपता है।
जाने कैसी करे तपस्या जाने किस आग मेँ तपता है।।
माधव तेरी मूरत आँखोँ से कभी ना जाती है।
हाय कैसे कहूँ विरह की घडी सही ना जाती है।।
पत्थर हृदय था मेरा द्वारे तेरे आते ही टूट गया।
तन तो हो आया मंदिर पर मन वृंदावन मेँ छूट गया।।
____सौरभ कुमार दुबे
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सादर धन्यवाद जी
वाह ! वाह !! बढ़िया कविता.
बहुत अच्छी कविता है .