उपन्यास अंश

उपन्यास: उम्र (प्रथम कड़ी)

आकाश एक सुलझा हुआ शख्स था. उसके व्यापारिक मित्रों में उसकी अच्छी पैठ थी. पिछले साल जब उसने अपनी नयी प्लास्टिक फैक्ट्री की नींव रखी थी तब उसके नाम पर चार फक्ट्रियां हो गयी थी. अक्सर बड़े ख्वाबों को लेकर पैदा हुए लोग छोटे शहरों में ही जन्म लेते हैं, ये बात उनके अन्दर एक जमीनी मानुष और एक दुर्लभ व्यक्तित्व को पैदा करती है!
रमेश कई बार अपने उलझे हुए भविष्य की चिंता में इतना अधिक परेशान रहता कि उसकी रातों की नींद और दिन का चैन हराम हो चुका था! भविष्य में अपनी निश्चित जगह बनाने के लिए एक व्यक्ति क्या कुछ नहीं करता आये दिन सरकारी फॉर्म भरता है, अनेको परीक्षाएं देता है और हजारों तमन्नाओं को दिल में रखकर अपने सुनहरे सपनों की चादर बुनता है! कई बार घर परिवार में जब उसकी उम्र को लेकर लोग बुराई करते तो वो चुपचाप वहां से निकल जाता कुछ भी ना कहता बस सुनता जाता…अब उसे इसकी आदत हो चुकी थी! सूरत वाली बुआ जी हों या भोपाल वाली मौसी जी हर कोई बस मिलते तो एक ही ताना देते “बेटा उम्र का लिहाज कर कोई छोटी मोटी नौकरी पकड़ ले और शादी करले!” जवानी की सबसे विकट समस्या मानो शादी है, मानो जीवन आकर यही ख़त्म हो जाता है, समाज के उसूल तो शायद यही कहते हैं! अपने भविष्य के सुनहरे सपने लेकर निकला एक युवक जब अपने परिवार और निकट सम्बन्धियों के बीच बैठता तो बरबस एक ही विषय उसे लेकर उठता “शादी क्यों नहीं कर लेता?” शादी को लेकर ताने मारने वालों की कमी नहीं थी,अक्सर अधेड़ उम्र की महिलाएं और वे जिनके पास बात करने को कोई विषय ना होता रमेश को इसी विषय में घसीट कर मानो महान कार्य कर लेते थे!
रमेश एक सीधा सादा युवक था,उभरा सीना चौड़ा माथा और ललाट पर अप्रतिम तेज किन्तु भविष्य की गहरी चिंता ने इस लड़के के ओज तेज़ को जैसे निगल लिया था! वो बचपन में बहुत सुन्दर था, बचपन में जब रमेश घर के बाहर खेलता तो अम्मा कहती “मैं तो परी जैसी बहु लाऊँगी अपने रमेश के लिए..” मोहल्ले की औरतों के लिए ये बातें आम थी! तब रमेश को कुछ समझता भी थोड़े था वो तो बस खेल खेल में माँ की तरफ देखता और शरमा सा जाता !!
आकाश और रमेश एक साथ पढ़े थे! रमेश होनहार था तो आकाश भी कम नहीं था, दोनों की दोस्ती भी बड़ी मजबूत थी, कॉलेज में कोई ऐसा नही था जो इनकी दोस्ती के बारे में ना जानता हो! जीवन कितने भी कठिन दौर से गुजरे लेकिन परिवार का साथ और सहयोग हमेशा एक महान समर्थन होता है, परिणामतः पढाई के बाद आकाश अपने घरेलु व्यापार में लग गया था और रमेश वही अन्य युवकों की तरह सरकारी नौकरी की तलाश में जुट गया.. उसे प्राइवेट कम्पनी में जॉब मिली भी लेकिन रमेश का मन और आम भारतीय परिवारों की मानसिकता “सरकारी नौकरी” के मायाजाल की ओर ही उसका आकर्षण बढ़ा!! जीवन में परिस्थितियों को देखकर चलना चाहिए ना सरकारी और गैर सरकारी नौकरियों को…रमेश का मानना था कि उसे यदि एक सरकारी स्कूल में पढ़ाने का मौका भी मिल जाए तो उसे कोई हर्ज़ नहीं! लेकिन विकट समस्या ये थी कि रमेश के पास अपने अन्य साथियों की तरह संपर्क नहीं थे.!! संघ लोकसेवा आयोग की परीक्षा में २ बार अनुत्तीर्ण होकर भी उसका हौसला नहीं टूटा था वो हर बार मेहनत से उठता और बार बार अपने लक्ष्य “सरकारी नौकरी के लिए जतन करता, कभी प्री में फेल होता तो कभी मेन तक पहुंचकर भी फेल हो जाता!! उसका मन स्थिर नहीं था उसने ढेरों फॉर्म भर रखे थे अनेकों बैंकों के,अनेको सरकारी संस्थानों के और भी अनेकों पर सभी में निराशा ही हाथ लगी थी! कटु सच्चाई ये भी थी कि वो घर पर ठीक से पढ़ नहीं पा रहा था या हर बार तैयारी में किसी ना किसी प्रकार का विघ्न ही पड़ता था!

जारी रहेगा…….

सौरभ कुमार दुबे

सह सम्पादक- जय विजय!!! मैं, स्वयं का परिचय कैसे दूँ? संसार में स्वयं को जान लेना ही जीवन की सबसे बड़ी क्रांति है, किन्तु भौतिक जगत में मुझे सौरभ कुमार दुबे के नाम से जाना जाता है, कवितायें लिखता हूँ, बचपन की खट्टी मीठी यादों के साथ शब्दों का सफ़र शुरू हुआ जो अबतक निरंतर जारी है, भावना के आँचल में संवेदना की ठंडी हवाओं के बीच शब्दों के पंखों को समेटे से कविता के घोसले में रहना मेरे लिए स्वार्गिक आनंद है, जय विजय पत्रिका वह घरौंदा है जिसने मुझ जैसे चूजे को एक आयाम दिया, लोगों से जुड़ने का, जीवन को और गहराई से समझने का, न केवल साहित्य बल्कि जीवन के हर पहलु पर अपार कोष है जय विजय पत्रिका! मैं एल एल बी का छात्र हूँ, वक्ता हूँ, वाद विवाद प्रतियोगिताओं में स्वयम को परख चुका हूँ, राजनीति विज्ञान की भी पढाई कर रहा हूँ, इसके अतिरिक्त योग पर शोध कर एक "सरल योग दिनचर्या" ई बुक का विमोचन करवा चुका हूँ, साथ ही साथ मेरा ई बुक कविता संग्रह "कांपते अक्षर" भी वर्ष २०१३ में आ चुका है! इसके अतिरिक्त एक शून्य हूँ, शून्य के ही ध्यान में लगा हुआ, रमा हुआ और जीवन के अनुभवों को शब्दों में समेटने का साहस करता मैं... सौरभ कुमार!

5 thoughts on “उपन्यास: उम्र (प्रथम कड़ी)

  • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

    सौरव भाई , शुरुआत बहुत अच्छी है , जिंदगी की सच्चाई आप ने बिआं करनी शुरू की है , good

  • सुधीर मलिक

    बहुत सुन्दर शुरूआत… अगली कड़ी का इन्तजार रहेगा

  • विजय कुमार सिंघल

    उपन्यास का आरम्भ अच्छा लगा। कड़ी थोड़ी लम्बी होनी चाहिए।

  • शान्ति पुरोहित

    उपन्यास रोचक लगता है।

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