कविता

सावन

सावन भी  आया, और  आसमा में बदल भी  छाये| वो बिन बरसे ही घंटो आसमान पे  छाये रहे |

मै बालकनी में खड़ा चाय की चुश्किया ले रहा था| मेरे 5 साल के भतीजे  ने पूछा कि चाचू ये बरस क्यों नही रहा?

                                 मै उसे कैसे बताऊ कि वजह क्या रही होगी|कैसे कह दूँ  कि सावन आया तो है  मगर बरसने को अब भी उनकी राह देख रहा है…..
आसमान में बदल गरज रहे थे
सावन पुरे जोश में बुँदे
बरसाने को हो  रहा था,
न जाने क्यों फिर
दरवाज़े खुले देखे तो
यूँ लगा इक पल को मुझे
अबके  सावन भी
वो ज़रूर आयेंगें
मै बालकनी में बैठा
चाय की चुस्की और
 सिगरेट के साथ
सावन की पहली बारिश के
 मज़े ले रहा था
तभी टेबल पर नज़र पड़ी
बस एक ही कप  दिखा मुझे
फिर दिमाग को मेरे
ख्यालो कि भीड़ ने
आ घेरा|
अनचाहे ही फिर
उनकी  याद भी आयी,
सिर्फ वो ही  याद आते तो
मै अपनी आँखों को
छलकने से रोक लेता
पर ज़ेहन में
बाकी वो लम्हे भी आए
जब हम यु ही
घंटो बालकनी में बैठ कर
बरसती बूंदों को देखकर
कुछ नगमे सुना करते थे
कुछ नज्मे पढ़ा करते थे|
याद है कैसे वो
हाथ बढ़ा कर
बूंदों को कैद करने की
नाकाम कोशिश करती थी
और जब हथेलिया भीगी
मगर खाली रह जाती
तो बच्चो कि तरह
बूंदों से रूठ जाया करती थी|
फिर हाथ बढाती थी और
कुछ बुँदे पकड़ कर
मेरी ओर फेंक देती थी|
मै कुछ भी  न कहता था
पर वो मुझे देख कर
जोरो  से हंसती  थी|
हँसते हँसते फिर रूकती
मुझे देखती थी और फिर
जोरो से हंसती थी|
मगर आज घर में फैली
ये खामोशी याद दिला रही है
की कुछ तो कमी रह गयी|
सावन भी कुछ उदास
जान पड़ता है अबके बरस
शायद उसे भी कोई खलिश
महसूस हो रही है फिज़ाओ में|
मै सोचता हूँ  सावन बरसे
तब तो वो आयेंगे
सावन सोचता होगा की
वो आयें तो मै बरसूँ|
इसी कशमकश में उलझे रहे सब
न तो सावन ही बरसा
ना ही वो आये.
सोचता हु कह ही दूं
जो पढो तुम इसको
तो बात ये जान ही लो कि
“सावन आये तो तुम आओ
तुम आओ तो बरसे सावन|”

One thought on “सावन

  • विजय कुमार सिंघल

    अबके सावन में ये शरारत मेरे साथ हुई।
    मेरा घर छोड़ सारे शहर में बरसात हुई।
    अच्छी कविता आनंद जी।

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