कोशी, केदार और कश्मीर का कहर
कोसी नेपाल एवं भारत के बीच बहनेवाली, गंगा की सहायक नदी है, जिसका जलग्रहण क्षेत्र करीब 69300 वर्ग किलोमीटर नेपाल में है। यह कंचनजंगा की पश्चिम की ओर से नेपाल की पहाड़ियों से उतर कर भीमनगर होते हुए बिहार के मैदानी इलाके में प्रवेश करती है। यह एक बारहमासी नदी है प्रत्येक वर्ष कोसी नदी में बह रही गाद के कारण नदी के तट का स्तर बांध के बाहर की जमीन से ऊपर हो गया है।
कोसी बराज से ऊपर 12 किमी दूरी पर 18 अगस्त 2008 को पूर्वी बांध में दरार हुआ। नदी बांध की दरार को और तोड़ती हुई नये मार्ग में बहने लगी। इस नये प्रवाह से करीब 3000 वर्ग कि.मी. क्षेत्र का सर्वनाश हुआ। आवास, विद्यालय, सड़क, चिकित्सालय सभी नदी के प्रवाह से क्षतिग्रस्त हुए। यद्यपि केन्द्र सरकार, निजी क्षेत्र के लोगों एवं गैर-सरकारी संस्थानों द्वारा राज्य सरकार की सहायता के लिए हाथ बढ़ाया गया.
कोसी नदी की बाढ़ से तबाह इलाकों का 14 हजार 808 करोड़ रु. की लागत से पुनर्निर्माण की घोषणा की गयी। उत्तर बिहार में कोसी की बाढ़ से भारी तबाही के बाद राहत व बचाव के पश्चात अब प्रभावित आबादी के दीर्घकालीन पुनर्वास, इलाके के पुनर्निर्माण की आवश्यकता है। क्यों आती है बाढ़?
पर्यावरणविदों का कहना है कि नेपाल स्थित कोसी के ऊपरी जलग्रहण क्षेत्र (हिमालय)में प्राकृतिक और मानवीय कारणों के चलते मृदा अपरदन (जमीन की ऊपरी परत अपनी जगह से हट जाना) और भूस्खलन होने से मैदानी इलाकों को प्रतिवर्ष बाढ़ की समस्या से रुबरु होना पड़ता है। ऊपरी पहाड़ी इलाके से निकलने के कारण वर्षा ऋतु के समय कोसी का बहाव अपने सामान्य बहाव से 18 गुना ज्यादा हो जाता है। ऐसे में कोसी तीव्र बहाव के साथ जमीन की ऊपरी परत को गाद के तौर पर साथ लेती आती है।
कोसी का बहाव मैदानी इलाकों में कम होने पर यह गाद नदी की सतह पर जमा होना शुरु हो जाती है। ऐसे में वर्षा होने पर नदी का जलस्तर बढ़ने लगता है। और नदी अपना प्रवाह क्षेत्र या मार्ग बदलने लगती है। जिसकी वजह से बाढ़ आ जाती है। पिछले 100 सालों में यह नदी अपने मार्ग को 200 किलोमीटर तक बदल चुकी है।
हमेशा की तरह इस साल भी कोसी का कहर बिहार के लिए शोक बनने वाली थी, हजारों लोगों को हटाया गया था, पर इस बार की त्रासदी टल गयी और लोग अपने घरों को पहुँच गए. वैसे हर साल बाढ़ की मार झेलने वाला बिहार में इस साल कम बृष्टि हुई और अधिकांश खेत बंजर ही रह गए.
उत्तराखंड और केदारनाथ
पिछले साल उत्तराखंड में आए जलप्रलय ने केदारनाथ में मौत का ऐसा तांडव मचाया कि देखने सूनने वालों की रूह कांप गई। केदार घाटी पूरी तरह तबाह हो गई। सैंकड़ों गांव लापता हो गए और हजारों लोग मारे गए।
जिस समय यह हादसा हुआ केदारनाथ की 90 होटले ठसाठस भरी हुई थी। इनमें भगवान शिव की आराधना के लिए आए हजारों लोग ठहरे हुए थे।
जल प्रलय से आई तबाही का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि केदारनाथ के नजदीक स्थित सोनबाजार इलाका भूस्खलन के कारण झील में तब्दील हो गया। केदार नाथ का मंदिर किसी तरह बच सका पर मौत का ताण्डव वहां भी खूब हुआ. एक साल बाद वहां स्थिति सामान्य होने को है, पर बीच बीच में अधिक वर्षा के कारण चेतावनी और नुक्सान तो होता ही है.
जम्मू व कश्मीर
बाढ़ से जूझ रहे जम्मू-कश्मीर में राहत और बचाव कार्य में राज्य की उमर अब्दुल्ला सरकार के नाकाम रहने के बाद अब केंद्र सरकार ने पूरी तरह मोर्चा संभाल लिया है। हालात को सामान्य करने के लिए राज्य में केंद्र ने तमाम संसाधन झोंक दिए हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के निर्देश पर केंद्रीय गृह सचिव के नेतृत्व में एक स्पेशल टीम बनाई गई है, जो राहत और बचाव कार्य को तेज करने का जिम्मा संभाल रही है।
गृह मंत्रालय के एक अधिकारी ने बताया, ‘उम्मीद है कि केंद्रीय गृह मंत्री राजनाथ सिंह घाटी के बाढ़ प्रभावित क्षेत्रों में फंसे लाखों लोगों के लिए चल रहे राहत एवं बचाव कार्य में मार्गदर्शन करेंगे।’ गौरतलब है कि राहत और बचाव कार्य की समीक्षा करने के बुधवार को एक उच्चस्तरीय इमर्जेंसी मीटिंग हुई थी, जिसमें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने हिदायत की थी कि आपदा प्रभावित लोगों की खाना और पानी जैसी बुनियादी जरूरतों को पूरा करने पर ध्यान दिया जाए।
अभी तक सेना और एनडीआरएफ ने मिलकर करीब दो लाख लोगों को बचाया है, लेकिन अब भी श्रीनगर में पांच लाख से ज्यादा लोग फंसे हुए हैं। प्रधानमंत्री की हिदायत पर केंद्र ने बड़ी मात्रा में पीने का पानी, दूध, रेडी टु ईट मील वगैरह भेजा है। सूत्रों ने बताया कि 5 टन से ज्यादा मिल्क पाउडर दिल्ली से कश्मीर भेजा गया है, जबकि और 5 टन शुक्रवार को भेजा जाएगा। पीएम मोदी ने कहा था कि बाढ़ प्रभावित राज्य में रोजाना 100-150 किलोलीटर दूध की जरूरत है।
पानी घटने के बाद फैलने वाली बीमारियों के खतरे को ध्यान में रखते हुए क्लोरीन की टैबलट्स बी भारी मात्रा में भेजी जा रही हैं। सरकार ने राज्य में 10 और हेल्थ एक्सपर्ट्स को भेजने का फैसला लिया गया है। इसके अलावा रेलवे भी राज्य को 1 लाख लीटर पीने के पानी की खेप भेज रहा है। केंद्र ने राज्य सरकार से कहा है कि केंद्र से आने वाली राहत सामग्री को सुरक्षित रूप से स्टोर किया जाए, ताकि यह खराब न हो और जरूरतमंदों तक पहुंचाया जा सके।
सूत्रों ने बताया कि एयर फोर्स से हेवी लिफ्ट मिग-26 हेलिकॉप्टर तैनात करने के लिए कहा जा सकता है, जो एक बार में 60 लोगों को ले जा सकता है।इससे बचाव कार्य को तेज करने में मदद मिलेगी, क्योंकि दूसरे तरीकों से लोगों को सुरक्षित जगहों तक पहुंचाने में काफी वक्त लग रहा है।
सवाल फिर वही है की हर साल प्राकृतिक आपदाएं आती है. राहत और बचाव कार्य किये जाते हैं. हर साल हजारो लाखों लोग इससे प्रभावित होते हैं. जान-माल का भारी नुक्सान होता है, पर ऐसी ठोस परियोजना बनाई जाती ताकि इस तरह के प्रकृति हादसों से निपटा जाय और कुछ ऐसी ब्यवस्था की जाय ताकि इस तरह की समस्या हो ही ना और अगर हो भी तो तत्काल निपटने के उपाय किये जाएँ.
कश्मीर के अधिकांश शहरों में तो जल निकासी की भी समस्या है, जिससे पानी काफी देर से निकलता है. ये पहाड़ी इलाके हैं जहाँ से पानी जल्द निकल जाना चाहिए पर यहाँ तो मैदानों की तरह पानी डटा रहता है. कहते है इसका आकार कटोरे जैसा है. चारो तरफ ऊंची जमीन है इसलिए भी पानी निकालने में कठिनाई होती है.
ऐसे समय में सेना के जवानों की जितनी भी सराहना की जाय कम है. क्योंकि ये लोग धर्म, जाति, समुदाय, क्षेत्र, पार्टी आदि से ऊपर उठाकर सभी पीड़ितों की हर संभव मदद करते हैं.
नदियों को जोड़ने की योजना का कब क्या होगा पता नहीं, पर प्रकृति का जिस प्रकार दोहन और क्षरण हो रहा है, स्थिति चिंताजनक होती जा रही है. जनसँख्या का दबाव भी एक कारण है. प्रकृति संतुलन बनना जानती है. विकसित देश जापान, चीन और अमेरिका में भी बाढ़, तूफ़ान, भूस्खलन की प्राकृतिक आपदा आती रहती है. क्या यह विनाश की चेतवानी नहीं है? विकास का चरमोत्कर्ष विनाश के रूप में आता है. क्या हम प्रकृति को बचाने और उसके साथ जीने का संकल्प नहीं कर सकते? आपदाग्रस्त होने पर हम विकत परिस्थितियों में भी रहकर कई दिन या कें हफ़्तों, महीने गुजार लेते है. शिविरों में सभी जाति और धर्म के लोग सामंजस्य बैठा लेते हैं. यहाँ हम आपसी दुश्मनी भूल जाते हैं. क्या यह सबक काफी नहीं है? इस विकट परिस्थिति में सभी लोग मुक्त मन से सहायता भी करते हैं. राष्ट्रीय एकता का सूत्र ही नहीं वसुधैव कुटुम्बकम का भी भाव पैदा होता है. आपदाग्रस्त लोगों की मदद के लिए जिस तरह मीडिया और अन्य स्वयम सेवी संस्थाओं ने मदद की है, वे सभी स्तुत्य हैं. हमारी संवेदना उन सब के साथ है. उन सबको विपरीत परिस्थितियों में अपने आपको सम्हालने की शक्ति ऊपरवाला दे.
-जवाहर लाल सिंह, जमशेदपुर.
हरदी आभार आदरणीय सिंघल साहब!
बहुत अच्छा और जानकारीपूर्ण लेख.