कविता

शिव मंदिर {ध्यान }

शिव मंदिर की सफ़ेद छत हैं
और सोने की हैं दीवार

फर्श पर बिछा रहता हैं
सुनहरा प्रकाश

उपस्थित आत्माओं की
श्वेत पंखुरियों सी
होती हैं पोशाक

बजते हैं पखावज
मृदंग की होती हैं संग मे थाप

नृत्य करते हैं
सभी मिलजुलकर एक साथ

तभी आकर महादेव होते हैं
झूले पर विराजमान
कुछ देर उपरान्त

आनंद विभोर होकर सुनते हैं
हम सब प्रभु का व्याख्यान

अंत में बूंद बूंद अमृत का होता हैं
वितरीत प्रसाद

जिसका हम लोग
करते हैं सप्रेम पान

मैं तो शिव लोक के इस मंदिर से
लौट कर आना ही नहीं चाहती हूँ

पर शिव जी कहते हैं
रहना होगा भू लोक में
जब तक न हो जाए
मेरा यह शरीर निष्प्राण

कभी कभी माँ भी आती हैं
करके सोलह श्रृंगार

सुन्दर लगते हैं शिव
खूबसूरत लगाती हैं माँ

बेटी की भांति वे दोनों करते हैं
मुझे प्यार

सत चित के लिए
आनंद ही हैं भगवान
यही हैं ज्ञान
यही हैं जीवन का सार

उड़ते उड़ते वापस आती हूँ तब
आग के दरिये को
मुझे करना पड़ता हैं पार

तब पहुँच पाती हूँ अपनी देह तक
तब कही जाकर
हो पाती हैं मेरी भौतिक काया पुनर्जीवित
और होता हैं
उसमे चेतना संचार

परमात्मा और आत्मा के बीच
शरीर के माध्यम से ही
शंकर जी करते हैं उपकार

साध्वी बरखा ज्ञानी

साध्वी बरखा ज्ञानी

बरखा ज्ञानी ,जन्म 10-05, रूचि शिव भकत, निवास-रायपुर (छत्तीसगढ़)

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