कविता : वे स्त्रियां
वे स्त्रियाँ
निकली थीं
वे अपने वजूद की तलाश में
बाजारवाद ने
बड़ी बड़ी आंखों से
उन्हें देखा
खो गई वे
उस तिलिस्म दुनिया में
बढती महत्वकांक्षाओं के आगे
टेक दिए घुट्ने
अपना लिया
अमेरिका का आड्म्बर
यूरोप का फैशन
भूलाकर भारतीय दर्शन
घर की चौखट
लांघते कांपते थे जो कदम
आज वे
धड़ल्ले से थिरक रहे
रैंप पर
ताक पर रखी जा
उनकी बौद्धिकता
कैमरे के समक्ष
तौलिए की तरह
बूंद बूंद
निचोड़ी जा रही अस्मिता
मै चाहे ये करुं
चाहे वो करुं मेरी मर्जी
के तर्ज पे चल के
हो चुकी हैं वे लक्ष्यविहीन
खो चुकी हैं
आजादी का वर्षों पुराना स्वप्न
सुनो स्त्रि—-
बोल्ड कहलाना ही तुम्हारा
एक मात्र उद्देश्य नही
क्या स्त्रि आंदोलन की परिणति
पुराने पिंजड़े से नए पिंजड़े
तक का सफर ही रह जाएगा?
सोचो, विचारो
फिर दौड़ो ! बेशक दौड़ो
पर कुछ इस तरह
कि सदियों बाद
मिली आजादी
छिन ना जाए
गुलामी पुन: तुम्हारा
प्रारब्ध का हिस्सा
ना बन जाए !!
***भावना सिन्हा **** !!
nice poem ..
बहुत अच्छी कविता, डॉ साहिबा.