कविता

वो शाम

तुम्हारी जादुई बातों ने

फिर याद दिला दिया

वो सिन्दूरी झील के

किनारे की शाम ,

फिर एहसास हो आया

उस मिलन का

जिसमे सिर्फ

मैं और तुम

हाँथो मे कॉफ़ी लिए

बस अपलक एक दूसरे

को निहार रहे थे ,

उस दिन पता चला

कुछ अधूरा था मुझमे

जो तुमसे मिल कर

पूरा हो गया ,

ज़िंदगी मे ये कुछ देर की

मुलाकात ऐसा महसूस करा

सकती है

ये कभी सोचा न था ,

अब कभी तुमसे दुबारा

मिलना होगा की नहीं

ये तो खुदा जाने

पर उस मिलन की

खुशबु आज भी

मेरे रोम रोम में बसी है……….


रेवा

 

 

3 thoughts on “वो शाम

  • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

    पड़ कर मज़ा आ गिया , वाह वाह वाह .

  • विजय कुमार सिंघल

    बहुत खूब !

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