लघुकथा

बेटियां

चार बेटियों के पिता रामलाल का पार्थिव शरीर आंगन में पङा था । सब तरफ से घिरा जमावङा आपस में फुसफुसा रहा था कि अब क्या होगा ? कौन कांधा और मुखाग्नि देगा इसकी अर्थी को । बङा घमंड था इसे अपनी बेटियों पर। गांव वालो के लाख समझाने के बावजूद भी एक-एक कर शहर भेजा पढने के लिए। सबके खिलाफ जाकर पानी की तरह पैसा बहाया बेटियोँ पर। सभी ने समझाया बेटियाँ पराया धन है एक दिन ससुराल चली जायेगी, फिर कौन करेगा बुढापे में सेंवा।पर रामलाल तो जैसे बेटियों के लिये ही जी रहा था।

मां को संभाल रही थी बेटियाँ और वहां लोगो का फुसफुसाना जारी था।

अचानक पंडित जी ने कार्यविधि के लिये किसी नजदीकी रिश्तेदार को आगे आने के लिये आवाज लगाई। पर वहां चारों बेटियाँ खङी थी सामने। सभी आश्चर्यचकित थे कि ऐसा भी कही होता है । लडकियों से यह सब कार्य कराना उनकी नजर में न्याय संगत नही था। पर वो चारों अपनी जिद्द पर अडी रही और न सिर्फ पूजा विधि निपटाई बल्कि कांधा देकर अंतिम क्रियाकर्म तक सब कुछ व्यवस्थित निपटाकर अपने पिता को सही साबित किया, जहां वह गांव वालो की नजर में गलत थे।

चारों आज अपनी मां के पास थी, एक प्रण के साथ कि अब उनकी बारी है अपनी मां की जिम्मेदारी उठाने की।अब वह वो बेटा बन दिखायेगी जो उनके पिता ने उन्है समझा था।

*एकता सारदा

नाम - एकता सारदा पता - सूरत (गुजरात) सम्प्रति - स्वतंत्र लेखन प्रकाशित पुस्तकें - अपनी-अपनी धरती , अपना-अपना आसमान , अपने-अपने सपने ektasarda3333@gmail.com

3 thoughts on “बेटियां

  • एकता सारदा

    आभार रचना पसंद हेतु..गुरमेल साहब एंव विजय भाई।
    आज आपकी सोच की इस समाज को आवश्यकता है ।ईश्वर करे वह दिन शिघ्र आये।सादर नमन।

  • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

    एकता जी , लोगों की पुरानी गलत धारणाएं बदलना हमारी नई पीड़ी की जिमेदारी है . यह पुराने विचारों के लोग नहीं बदलेंगे , नई जेनरेशन को ही कुछ करना होगा . मैं ७१ का हूँ , मैंने हमेशा बच्चों की ही मानी है , उनके साथ ही चला हूँ . मेरी दो बेतिआं हैं और एक बहु है . बहु मेरी तीसरी बेटी है , अब तो मैं डिसेबल हूँ और वोह ही मुझे वील्चेअर में हस्पताल ले कर जाती है . आज की बेटी को खुद आगे बढना होगा .

  • विजय कुमार सिंघल

    बहुत प्रेरक लघुकथा !

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