कविता

चढ़ते सूर्य का पैगाम

चढ़ते  सूर्य  का पैगाम
लाख कहो के हो गया है अँधेरा
पर काले बादलों के पीछे
छिप गया है सवेरा
 यही पैगाम  देता है
चढ़ता सूर्य और जाता अँधेरा
काले बादलों को चीरता
झिलमिलाता हुआ आयेगा सवेरा
यही पैगाम देता है
चढ़ता सूर्य और जाता अँधेरा
काली अँधेरी रात के बाद
सवेरा ही आता  है सदा
अनेक के मन में
यही आशा का है दीप जलाता
यही पैगाम देता है
चढ़ता सूर्य और जाता अँधेरा
देख परछाई भय का
आभास होने न दो कभी
दो कदम आगे बढ़ो
तुम खिलखिलाता हुआ
प्रकाश पाओगे सदा
यही पैगाम देता है
चढ़ता सूर्य और जाता अँधेरा
शाम के ढलने से
अँधेरा कभी होता नहीं
बाहर जा आसमान देखो
मीठी सी चांदनी
खिल्ख्लाती पाओगे सदा
यही पैगाम देता है
चढ़ता सूर्य और जाता अँधेरा
इस काली अँधेरी रात में
चांदनी थोड़ी कम है तो क्या?
मेरा विश्वास है
मेरी मंजिल के करीब
हँसता हुआ सूरज
मैं पाऊँगी सदा
यही पैगाम देता है
चढ़ता सूर्य और जाता अँधेरा
सूर्य के आते ही
अन्धकार को होती है सज़ा
 वैसे ही इमानदारी के आते ही
 बेईमानी दब जाती है सदा
प्यार के आते ही
नफरत को  सुनाई  जाती है
मौत की  सज़ा
यही पैगाम देता है
चढ़ता सूर्य और जाता अँधेरा
दोस्तों चढ़ते सूर्य का
पैगाम सुनो
वैर , द्वेष , इर्षा
अपने मन से मिटा दो
मन में आशा का
एक नया दीप जला
इस विश्व को,
अपने भारत को
आओ जन्नत से भी
सुन्दर बना लो

 

अंकजा दुबे

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One thought on “चढ़ते सूर्य का पैगाम

  • विजय कुमार सिंघल

    बहुत सुन्दर कविता !

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