इतिहास

भूत तथा भविष्य के द्रष्टा महर्षि दयानन्द

हमने लेख का यह शीर्षक इसलिए चुना है कि यह महर्षि दयानन्द पर सटीक बैठता है अर्थात् वह भूत व भविष्य के द्रष्टा थे। इसे हम आगामी पंक्तियों में बताने का प्रयास करते हैं। इससे पूर्व कि हम महर्षि दयानन्द के गुणों के बारे में बतायें उनका संक्षिप्त परिचय जान लेना आवश्यक है। महर्षि दयानन्द एक साधारण मनुष्य न होकर एक उच्च कोटि के योगी, चार वेद के मन्त्रों के अर्थों के द्रष्टा अर्थात् ऋषि व असाधारण विद्वान पुरूष थे। वेदों तथा इतर वैदिक साहित्य का अध्ययन करने से उनका अनेकानेक विषयों का ज्ञान बहुत उच्च स्तर का था। इसके साथ ही योग का अभ्यास करने व इसमें सफलता मिलने से वह ईश्वर का साक्षात्कार करने में भी सफल हुए थे। इसका अनुमान व प्रत्यक्ष उनके ग्रन्थों को पढ़कर होता है और साथ ही उनके जीवन चरित्र से ही इसका ज्ञान होता है। योग विधि से समाधि अवस्था प्राप्त कर ईश्वर के साक्षात्कार से क्या लाभ होता है? इसका उत्तर है कि मनुष्य की अविद्या दूर हो जाती है। अविद्या दूर होने से वह जिस विषय का चिन्तन करता है उसका सत्य व पूर्ण ज्ञान उसे हो जाता है। ईश्वर संसार का सबसे सूक्ष्मतम तत्व है, इससे सूक्ष्म अन्य कोई तत्व नहीं है। ईश्वर से कुछ मामूली सा स्थूल परन्तु अन्य सभी भौतिक पदार्थों से सूक्ष्म मनुष्य व सभी प्राणियों का जीवात्मा होता है। जीवात्मा से भी सूक्ष्म होने के कारण “ईश्वर” सभी जीवात्माओं व भौतिक पदार्थों में व्यापक वा सर्वान्तर्यामी है। हमारा सूक्ष्म शरीर क्योंकि प्रकृति का विकार है अतः यह मूल प्रकृति के समान ही सूक्ष्म परन्तु मूल प्रकृति, ईश्वर व जीवात्मा से किंचित स्थूल होता हैं। जब योगी को ईश्वर अर्थात् सृष्टि के सूक्ष्मतम तत्व व पदार्थ ईश्वर का साक्षात्कार अथवा सत्य-सत्य ज्ञान हो जाता है तो अन्य पदार्थों का ज्ञान होना कठिन नहीं है। ईश्वर की सहायता से योगी किसी भी इच्छित विषय या पदार्थ का ज्ञान सरलता से प्राप्त कर लेता है। महर्षि दयानन्द इसी कारण न केवल ईश्वर, जीवात्मा और भौतिक पदार्थों का ही सत्य-सत्य ज्ञान रखते थे अपितु इसके साथ धर्म व व्यवहार सम्बन्धी भी सब प्रकार का सत्य-सत्य ज्ञान रखते थे।

महर्षि दयानन्द सरस्वती ने शास्त्रों, अपने विवेक व अनुभव के आधार पर स्वरचित ग्रन्थों मुख्यतः सत्यार्थ प्रकाश में जीव व जीवन के प्रमुख लक्ष्य मोक्ष का वर्णन किया है। ऐसा ज्ञान व वर्णन अन्य मत, धर्म, पन्थ, सम्प्रदाय व मजहब आदि के ग्रन्थों आदि में कहीं उपलब्ध नहीं होता। यह मोक्ष उस व्यक्ति को प्राप्त होता है जो योग दर्शन के अनुसार साधना कर ईश्वर का साक्षात्कार करने में समर्थ व सफल होता है। मोक्ष में मनुष्य का शरीर नहीं रहता, वह मृत्यु होने पर पंच-तत्वों में विलीन हो जाता है, परन्तु उसके चेतन जीव को ऐसी शक्तियां प्राप्त हो जाती है कि वह जो भी इच्छा करता है वह पूरी हो जाती है। मोक्ष अवस्था में जीव अव्यवाहृत अर्थात् बिना किसी रोक-टोक व अवरोध के ब्रह्माण्ड मे जहां आना-जाना चाहता है, ईश्वर प्रदत्त शक्तियों से वह ऐसा कर सकता है। इसका अर्थ है कि वह एक सूर्य लोक से दूसरे सूर्य लोक व अन्य सूर्य लोकों में भी इच्छानुसार आ-जा सकता है। वह जीव वा जीवात्मा जिस प्रकार का भी संकल्प करता है वह पूरा हो जाता है। संकल्प की पूर्ति मोक्षावस्था में ईश्वर के द्वारा होती है। मोक्ष अवस्था में जीव ईश्वर के सान्निध्य से आनन्द को भोगता है। यह आनन्द भौतिक व शारीरिक सुखों से कहीं अधिक बड़ा सुख होता है। इसमें निश्चिन्तता होती है। भौतिक सुख क्षणिक या कुछ समय के लिए मिलते हैं और कुछ देर बाद उनका प्रभाव कम या समाप्त हो जाता है। असम्प्रज्ञात समाधि के बाद मोक्ष में ईश्वर के सान्निध्य का सुख एक प्रकार से स्थाई व 31 नील 10 खरब 40 अरब वर्षों का होता है। ऋषियों व वेद की कोई भी बात गलत होने का प्रश्न ही नहीं है क्योंकि वह हर बात को सत्य व असत्य की कसौटी पर कसकर व उसका साक्षात् ज्ञान व अनुभव होने पर ही प्रकट करते हैं या बतलाते हैं। महर्षि पतंजलि ने योगदर्शन का प्रणयन ही जीवात्माओं को मोक्ष सुख प्रदान कराने की विधि व साधनों का प्रकाश व विवरण देने के लिए किया है। अतः ईश्वर का साक्षात्कार किये हुए योगी की स्थिति एक प्रकार से मोक्ष प्राप्त जीवात्मा के लगभग समान ही होती है। ईश्वर के सान्निध्य से उसे न केवल आनन्द की प्राप्ति होती है अपितु वह जो भी सद्-इच्छा करता है, उसे सर्वव्यापक व सर्वशक्तिमान ईश्वर पूरी करता है। यह ऐसा ही है कि जैसे योग्य गुरू से योग्य विद्यार्थी कठिन, जटिल प्रश्न व शकायें करता है तो गुरू उसका यथोचित समाधान कर शिष्य को सन्तुष्ट व प्रसन्न करता है। इसी प्रकार से ईश्वर से प्राप्त शक्तियों व ज्ञान से सिद्ध योगी व ऋषि को भूत-वर्तमान व भविष्य के अनेक विषयों मुख्यतः सामाजिक, इतिहास, राजनैतिक व सामान्य विषयों आदि का ज्ञान प्राप्त हो जाता है। इसे जान लेने पर ही महर्षि दयानन्द ने सद्धर्म का निर्धारण व प्रचार किया और असत्य, अन्धविश्वास, पाखण्ड, कुरीतियों, अज्ञान व असत्य मतों का खण्डन किया जिससे संसार के मनुष्य दुखों व कष्टों से मुक्त होकर धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष को प्राप्त कर सकें जो कि मनुष्य जीवन का चरम लक्ष्य वा उद्देश्य है।

विषय को पुष्ट करने वाला एक तथ्य यह भी है कि महर्षि दयानन्द ने 21 वर्ष की अवस्था में गृह त्याग किया और अपने लगभग 59 वर्षों के गृहस्थ के उत्तरदायित्व से रहित एवं एक प्रकार से एकाकी जीवन में नाना विषयों संबंधी सत्य व तथ्यों की निरन्तर खोज करते रहे। घर का त्याग करने के बाद से वह देश भर के विद्वानों, ज्ञानियों, योगियों, विचारकों व चिन्तकों के सम्पर्क में आये और उनसे संगतिकरण की पद्धति से उनके ज्ञान व अनुभव को जाना, समझा व ग्रहण किया। इसके अतिरिक्त वह सारे देश में घूमे थे और जहां-जहां गये वहां-वहां के पुस्तकालयो, ग्रन्थालयों व संग्रहालयों के दुर्लभ प्राचीन ग्रन्थों, पाण्डुलिपियों व वहां उपलब्ध विविध सामग्री आदि को उन्होंने देखा था। संस्कृत से परिचित होने और प्राचीन समस्त ज्ञान संस्कृत में ही होने के कारण वह उन ग्रन्थों में निहित ज्ञान को आत्मसात कर पूरी तरह से जान सके जो अन्य संस्कृत से रहित व अन्य भाषा-भाषियों के लिए सम्भव नहीं था। उन्होंने इतिहास के उन तथ्यों व प्रमाणों को भी देखा था जो इतिहास के प्रमुख अध्येताओं को उनके संस्कृत भाषा के ज्ञान से हीन होने से विदित नहीं हुआ करते। अतः महर्षि दयानन्द का अतीत व इतिहास आदि का ज्ञान अपने समकालीन व बाद के व्यक्तियों में सबसे अधिक माना जा सकता है। प्राचीन दुलर्भ ग्रन्थों व पाण्डुलिपियों के ज्ञान तथा योग, समाधि, ईश्वर साक्षात्कार की योग्यता, वेद एवं शास्त्राध्ययन के साथ-साथ सत्य की खोज की उनकी तीव्र भावना के कारण वह मानव की प्रकृति तथा मनोविज्ञान में योग्य व प्रवीण थे। उन्होंने इस कारण अपने विवेक व ऊहा से भूत व भविष्य की घटनाओं को अन्य विद्वानों से कहीं अधिक जाना व समझा था। अतः इन विषयों का वह तथ्याश्रित सही पूर्वानुमान लगा सकते थे। इनकी अपूर्व योग्यता व दक्षता के कारण ही हम उन्हें भूत व भविष्य का द्रष्टा अनुभव करते हैं। यहां यह भी उल्लेख करना समीचीन होगा कि ईश्वर जीवों के कर्मों की अपेक्षा से ही त्रिकालदर्शी होता है। इसी प्रकार जीवों के भावी कर्मों का जो अनुमान ईश्वर या ऋषि आदि लगाते हैं, वह अधिकांशतः व आंशिक सत्य होता है।

महर्षि दयानन्द सरस्वती संसार में पूर्व सिद्ध योगियों व ऋषियों से किंचित भिन्न प्रकार के अपूर्व महापुरूष हुए हैं। उन्होंने अपने निजी दुःखों व मोक्ष की चिन्ता नहीं की अपितु उन्होंने सारे संसार के सभी लोगों को ईश्वर की मोक्ष रूपी सम्पदा की प्राप्ति में भागीदार बनाया। क्या उनसे पूर्व उन जैसा कोई योगी, ऋषि व महापुरूष भारत या संसार में जन्मा था, इसका ऐतिहासिक वा धार्मिक साहित्य में कहीं कोई उल्लेख नहीं मिलता। इसी कारण उनके बार में कहा जाता है कि वह “न भूतो न भविष्यति” तथा “अपनी उपमा आप” व्यक्तित्व वाले संन्यासी या महामानव थे। निष्कर्षतः हम कहना चाहते हैं कि महर्षि दयानन्द अतीत-वर्तमान तथा भविष्य के द्रष्टा थे और इसी कारण उन्होंने विश्व के कल्याण के लिए प्राणीमात्र के लिए हितकारी वेद मत को चुना व प्रचार किया। इन्हीं शब्दों के साथ हम लेख को विराम देते हैं।

-मनमोहन कुमार आर्य